26 May 2015

ग़ज़ल - युग बदलती सोच की सौगात के

जब हम बार-बार ये सोचते हैं कि किसी ख़ास शख़्स या शै के बारे में बिलकुल भी न सोचें, तो हम ख़ुद को उन्हीं गलियों की तरफ मोड़ते हैं जहाँ हम जाना नहीं चाहते, मगर चाहते हैं कि जायें। अपने को बेहतर तरीके से जानने के लिए, ये 'न चाहना' का 'चाहना' ज़रूरी भटकाव है, शायद !


युग बदलती सोच की सौगात के 
रंग बदले-बदले हैं देहात के 

ख़्वाहिशें मेरी मुसलसल यूँ बढ़ीं 
हो गईं बाहर मेरी औक़ात के 

अलविदा जब दिन ने सूरज को कहा 
शाम ने परदे गिराये रात के 

ख़ामुशी कसने लगी है तंज अब 
रास्ते कुछ तो निकालो बात के 

कुछ दिनों तक मन बहकने दो ज़रा 
ख़्वाहिशों पर रंग हैं जज़्बात के 

खेलने के बस तरीके बदले हैं 
खेल तो वैसे ही हैं शह-मात के 

गोधरा पर ट्रेन जब ठहरी ज़रा 
घाव फिर ताज़ा हुये गुजरात के 

मुश्किलें बेहतर बतायेंगी 'सफ़र'
लोग कितना साथ देंगे साथ के 

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Painting (Checkmate) by Andrea Banjac 

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