ख़ौफ़ शामों का सताता है सहर में
कुछ अँधेरे घर बना बैठे हैं घर में
उम्र पर चढ़ती सफ़ेदी कह रही है
रंग सब घुलने हैं आख़िर इक कलर में
धूप कुछ ज़्यादा छिड़क बैठा है सूरज
छाँव सब कुम्हला गई हैं दोपहर में
ज़िन्दगी यादों की दुल्हन बन गई है
बूँद अमृत की मिला दी है ज़हर में
बारिशों का ज़ोर था माना मियाँ पर
बल नदी जैसे दिखे हैं इस नहर में
दर्द को आवाज़ देती कुछ सदायें
गूँजती हैं रोज़ गिरजे के गजर में
ख़ूबियों को इक तरफ़ रख कर के सोचो
ऐब भी आयें अगर कोई हुनर में
-----------------------
फोटो - साभार इंटरनेट