29 January 2010

ग़ज़ल - चलो फिर से जी लें शरारत पुरानी

वैसे आज जिस ग़ज़ल से आप मुखातिब हो रहे हैं वो आपके लिए नयी नहीं है, गुरु जी के ब्लॉग पे चल रहे तरही मुशायेरे में आप इससे रूबरू भी हो चुके होंगे मगर इसमें एक नया शेर है जिससे इस पोस्ट को लगाने का छोटा सा कारन मिल गया. इस ग़ज़ल का आखिरी शेर नया है.

जो लोरी सुना माँ ज़रा थपथपाये
दबे पाँव निंदिया उन आँखों में आये

चलो फिर से जी लें शरारत पुरानी
बहुत दिन हुए अब तो अमिया चुराये

खिंची कुछ लकीरों से आगे निकल तू
नयी एक दुनिया है तुझको बुलाये

मुझे जानते हैं यहाँ रहने वाले
तभी तो ये पत्थर मिरी ओर आये

किया जो भी उसका यूँ एहसां जता के
तू नज़दीक आकर बहुत दूर जाये

मैं उनमे कहीं ज़िन्दगी ढूँढता हूँ
वो लम्हें तिरे साथ थे जो बिताये

खुली जब मुड़ी पेज यादें लगा यूँ
के तस्वीर कोई पुरानी दिखाये 

दुआओं में शामिल है ये हर किसी के
नया साल जीवन में सुख ले के आये

मैं आँखें मिला जग से सच ही लिखूं माँ
मेरी सोच मेरी कलम भी बताये

ग़ज़ल टहनियों पे नयी सोच खिल के
ख़यालों के पतझर से उनको बचाये 

[त्रैमासिक 'नई ग़ज़ल' के अक्टूबर-दिसम्बर 2011 अंक में प्रकाशित]



21 January 2010

ग़ज़ल - मैं पंछी हूं मुहब्‍बत का, फ़क़त रिश्‍तों का प्‍यासा हूं

ऐसा लग रहा है कि ब्लॉग पे पोस्ट किये हुए एक अरसा हो गया है, काफी दिन हो गए थे और ब्लॉग पे कोई पोस्ट नहीं लिखी थी. कुछ व्यस्तता कहूं या नेट कि निर्धारित सीमायें मगर जो भी हो.......... भोपाल जाना और सीहोर जाके गुरु जी का साक्षात् सानिध्य पाकर अगर ख़ुद को खुशनसीब ना कहूं तो आप सब से बेमानी होगी.

सीखने को बहुत कुछ मिला क्योंकि सिखाने वाले के पास ज्ञान का अथाह भण्डार है, केवल ग़ज़ल ही नहीं तकरीबन जो भी मुद्दे बंद पोटली से बाहर आये तो वापिस संतुष्ट होकर ही गए. हर वो बीता हुआ पल मेरे सामने जिंदा हो उठता है जब मैं आँखें मूँद के थोड़ी देर यादों के आँगन में चहलकदमी के लिए निकल पड़ता हूँ...............

गुरु जी द्वारा कहा गया हर लफ्ज़, हर वाक्य या फिर कुछ भी बहुत कुछ सिखा गया एक बात जो इनकी मैं गाँठ बाँध के सदैव अपने पास रखूँगा और चाहूँगा कि आप भी उसका अनुसरण करें. वो है...........
"एक अच्छा इंसान ही एक अच्छा लेखक/शायर हो सकता है इसलिए पहले अच्छा इंसान बनना ज़रूरी है."
यादों को समेट के लिखना मुश्किल लग रहा है इसलिए कुछ चित्र छोड़ जा रहा हूँ...........
 (कांकरहेरा  में)
 
 (सनी, सोनू, गुरु जी और सुधीर)
आज जिस ग़ज़ल से आप सब को रूबरू करवा रहा हूँ ये थोड़ी पुरानी ग़ज़ल है, बहरे हजज की इस ग़ज़ल पे बहुत लिखा गया है.

१२२२-१२२२-१२२२-१२२२
कभी झूठा समझता है कभी सच्चा समझता है.
ये उसके मन पे छोड़ा है, जो वो अच्‍छा समझता है.
  
मैं पंछी हूं मुहब्‍बत का, फ़क़त रिश्‍तों का प्‍यासा हूं
ना सागर ही मुझे समझे ना ही सहरा समझता है.

उसी कानून के फिर पास क्‍यों आते हैं सब जिसको
कोई अँधा समझता है कोई गूंगा समझता है.

जो जैसे बात को समझे उसे वैसे ही समझाओ
शराफ़त का यहां पर कौन अब लहजा समझता है.

मुसाफिर हैं नए सारे सफ़र में ज़िंदगानी के
यहाँ कोई नहीं ऐसा जो ये रस्ता समझता है.