28 November 2008

अमनों-सुकू का होगा इम्तेहान कब तलक?

"इस अमनों-सुकू का होगा इम्तेहान कब तलक?
ये जेहाद लेगा मासूमों की जान कब तलक?"

बहुत से सवाल अब भी अपने जवाब की तलाश में हैं?
क्या हम कुछ सीख पाएंगे या फ़िर सब भूल कर अगले सबक (बम विस्फोट) का इंतज़ार करेंगे और हर बार की तरह शहीदों के बलिदान को टीका टिप्पणियों तक सिमटा देंगे?

27 November 2008

हड़ताल-एक मौज

ये कविता मैंने अपने स्कूल के दिनों में लिखी थी और ये आज भी मुझे पसंद है।

"हड़ताल-एक मौज"
जब काम करने का मन ना कर रहा हो,
काम भी बोझ सा लग रहा हो
तो काम से छुट्टी का सबसे अच्छा बहाना है
ऑफिस में कर दो हड़ताल
कमरों में लगा दो ताला
किसी एक या दो के गले में पहना दो माला
ज़ोर-ज़ोर से नारे लगाओ हम भूख हड़ताल कर रहे हैं
परदे के पीछे सब आराम से पेट भर रहे हैं
अपनी गाड़ी ना हो तो गाड़ियों में आग लगा दो
सड़क पे झूमने का मन करे तो चक्का जाम लगा दो
कितना सुख है इस हड़ताल में
सरकार भी नाममात्र को जुटती है जाँच पड़ताल में
हफ्ते भर के मौज मनाओ
फ़िर एक यूनियन बनाओ
कुछ सरकार की मानो कुछ अपनी मनवाओ
ऐसा सुख कहीं मिलता नही जितना है हड़ताल में
सबकी दुआ है ये आ जाए दो चार बार साल में।

25 November 2008

ग़ज़ल - ये खंडहर हैं किसी की यादें.........

वो सज संवर के निकल रहे हैं।
हवा फिज़ा सब बदल रहे है।

तिरी नज़र, होठ, ज़ुल्फ़, चिलमन,
मिरी ही कोई ग़ज़ल रहे हैं।

कसम वो तुमको न सोचने की,
किए जो वादे पिघल रहे हैं।

है प्यार यारों नया ही हरदम,
कदम संभल कर फिसल रहे हैं।

ये खंडहर हैं किसी की यादें,
कभी ये जगमग महल रहे हैं।

24 November 2008

ग़ज़ल - रात लपेट के सोया हूँ मैं

आँखे जब भी बोलें जादू
बातें शोख, अदा इक खुशबू

तेरी आँखों का ये जादू 
काबू में है दिल बेकाबू 

रात लपेट के सोया हूँ मैं 
चाँद को रख कर अपने बाज़ू 

एक ख़याल तुम्हारा पागल 
लफ़्ज़ों से खेले हू-तू-तू 

जब लम्हों की जेब टटोली 
तुम ही निकले बन कर आँसू 

याद तुम्हारी फूल हो जैसे 
सारा आलम ख़ुश्बू-ख़ुश्बू

बीच हमारे अब भी वो ही 
तू-तू-मैं-मैं, मैं-मैं-तू-तू 

दुनिया को क्यूँ कोसे ज़ालिम 
जैसी दुनिया वैसा है तू

नींद के पार उभर आया है 
ख़्वाब सरीखा कोई टापू 


[हिंदी चेतना जनवरी-मार्च 2013 अंक में प्रकाशित]


20 November 2008

ग़ज़ल - सबका अपना अपना कहना

सबका अपना, अपना कहना।
कहते रहना, कहते रहना।
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ये कश्ती ही जाने है बस,
किस जानिब है उसको बहना।
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बात पता ये मुझको ना थी,
बिन तेरे है मुश्किल रहना।
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दिल में जो हैं दर्द पुराने,
वो चाहे बस दिल में रहना।
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सोच यही माँ बेचे जेवर,
मेरे बच्चे मेरा गहना।
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झूठ बड़ा होने से पहले,
लाजिम है फ़िर सच को कहना।
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बाबा ने एक बात सिखाई,
बेटा आगे बढ़ते रहना।

15 November 2008

मेरा पहला कदम................................."दो आँसू"

बात २००१-२००२ की है, जब मैं १२वी में था। मेरे स्कूल में १५ अगस्त,२००१ को एक कवि सम्मलेन का आयोजन हुआ था और उसमे विद्यार्थियों को भी पड़ने के लिए आमंत्रित किया गया था मगर शर्त थी अगर वो अपना कुछ लिखते हो। मुझे उस दिन एहसास हुआ की काश अगर मेरी भी कुछ कवितायेँ होती तो शायद मैं भी उन लोगो के साथ मंच पे होता। लिखने की रूचि मेरी पहले से थी लेकिन पहले मैं निबंध लिखता था और कई प्रतियोगिताएं भी जीता था। मगर कविता लिखना एक अलग विधा थी। मगर उस दिन की घटना का मुझे काफ़ी अफ़सोस हो रहा था और मैं उस कवि-सम्मलेन को सुनने के लिए भी नही गया। शायद यही मैंने अच्छा काम किया, अब आप सोच रहे होंगे ऐसा मैं क्यों कह रहा हूँ। दरअसल मेरे अन्दर एक रचना(कविता) आकर ले रही थी और शाम को जिस वक्त स्कूल में कवि-सम्मलेन हो रहा था, उसी वक्त मैंने अपने जीवन की पहली कविता लिखी।
उस कविता का शीर्षक था ............ "दो आँसू"
और वो कविता ये है..............

जीवन है एक दिया हम उसकी बाती हैं।
समर्पण है लौ उसकी, बाती को जो जलाती है।
क्षितिज को आज तक कौन छू पाया है।
ढूँढ़ते है इश्वर को वो तो दिल में समाया है।
हर पल है चलना हमको और चलते जाना है।
इन सिमटी हुई राहों पे ही उम्मीदों का महल बनाना है।
काफी नही है इतना और भी कुछ करना है।
आज जन्म हुआ है तो कल सभी को मरना है।
तमन्ना नही की दुनिया में मेरा नाम हो सके।
आरजू है बस इतनी मेरे जाने के बाद,
मुझ पर कोई "दो आंसू" रो सके।
उसके बाद ये सिलसिला चल पड़ा मगर उसमे भी बहुत सी कहानियाँ है, की कब मैंने कविताओं का दामन छोड़ के ग़ज़ल का आँचल थाम लिया। वो आगे कभी...............

11 November 2008

ग़ज़ल - अब तीरगी को मात ये देकर ही बुझेगा

अब तीरगी को मात ये देकर ही बुझेगा।
लड़कर हवा से ये दिया जोरों से जलेगा।
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मेरी बुलंदी का धुआं यारों मत बनाओं,
किस को ख़बर है किस की ये आंखों में चुभेगा।
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तह पड़ चुकी है गर्द की रिश्तों पे यहाँ यूँ,
पोछा गया तब कुछ नया ताज़ा सा दिखेगा।
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चाहे बड़ा कितना भी हो जाऊँ, माँ के आगे,
दर पे झुका है सर मिरा झुकता ही रहेगा।
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अच्छा सलीका है सिखाने का यार उसको,
वो खुदबखुद ही सीख जाएगा जब गिरेगा।
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मैंने हुनर में रख तराशा है एक संग जो,
ऊँचे अगर, मैं दाम रख बेचूं तो बिकेगा।

08 November 2008

समीक्षा - "दुआ कीजे" [मुस्तफा "माहिर" पन्तनगरी]

मेरे अज़ीज़ दोस्त और साथी शायर मुस्तफा "माहिर" की पहली किताब "दुआ कीजे" "अमृत प्रकाशन" शाहदरा, दिल्ली-११००३२ से प्रकाशित हो गई है। मेरी तरफ़ से उन्हें दिली मुबारक़बाद। 

एक छोटा सा परिचय :-
"माहिर" का जन्म २ नवम्बर १९८४ को पंतनगर, उत्तराखंड में हुआ। बरेली कॉलेज से सन २००५ में बी.एस.सी. के बाद उन्होंने के.सी.एम.टी. बरेली से सन २००८ में एम.बी.ऐ. की डिग्री हासिल की। 

उनकी किताब "दुआ कीजे" ग़ज़ल संग्रह है. किताब की शुरुआत ही एक बेहतरीन शेर से हुई है।
"इक मिसरा है प्यार तुम्हारा
दूजा मिसरा ग़ज़लें हमारी"


"दुआ कीजे" के कुछ ग़ज़ल और शेर मैं उनकी अनुमति से यहाँ लिख रहा हूँ। 


1)-
कितनी ही नदियों से हाथ मिलाया है।
तब जाके सागर, सागर बन पाया है।

तेरे रहबर लोग हुए लेकिन मुझको,
राह की ठोकर ने चलना सिखलाया है।

उसकी बातों से लेकर आंखों तक पे,
लोगों ने अक्सर ही मुझको पाया है।

२)-
खुशी की एक है लेकिन किरण में ज़िन्दगी तो है।
ज़रा सी देर ही को है अमन में ज़िन्दगी तो है।

हमें इसका नही शिकवा वो आता है घड़ी भर को,
मिलन कितना भी छोटा है मिलन में ज़िन्दगी तो है।

ठहर जाने का मतलब है मिटा लेना खुदी अपनी,
चले निकलों, चले निकलों, थकन में ज़िन्दगी तो है।

तवायफ दर्द की, पायल बजके शोर करती है,
मगर उसकी इसी छन छनन में ज़िन्दगी तो है।

खिले थे गुल सभी लेकिन सभी मायूस कितने थे,
किसी तितली के आने से चमन में ज़िन्दगी तो है।

कुछ शेर "दुआ कीजे" से ......

१)-
इससे अच्छी बात भला क्या हो ग़म में,
जो अपने लगते थे वो अपने निकले।
२)-
उन लम्हों में ऐसा कुछ भी ख़ास नही,
साथ तुम्हारे बीते थे तो याद रहे।
३)-
नज़र वो है जो लम्हें भर में कर ले जुस्तजू पूरी,
सुबह तक तो अन्धेरें भी उजाले ढूँढ लेते हैं।
४)-
इस सियासत की जुबा में लफ़्ज़ के कहने का गर,
ढंग भी बदला तो मतलब दूसरा हो जाएगा।

मैं यही दुआ करता हूँ की ये किताब एक मिसाल बने.

04 November 2008

ग़ज़ल - कभी झूठा समझता है, कभी सच्चा समझता है


कभी झूठा समझता है, कभी सच्चा समझता है।
ये उसके मन पे है छोडा वो जो अच्छा समझता है।
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बिताये संग थे लम्हें तिरी वो याद पागल सी ,
ज़हन में आ ही जाते है जो दिल तनहा समझता है।
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मुहब्बत और चाहत को न जाने कब तू समझेगा,
जो तेरी याद में जलता हुआ लम्हा समझता है।
.
चले आते है फ़िर क्यों सब उसी कानून पे जिसको,
कोई अँधा समझता है, कोई गूंगा समझता है।
.
वो रखता है मुझे दिल में, छिपाता है सभी से ही,
ये मेरी खुशनसीबी के मुझे अपना समझता है।