20 October 2009

ग़ज़ल - झूठ भी सच सा जहाँ है

पिछली ग़ज़ल पे आप सब से मिली हौसलाफजाई और गौतम भैय्या से हुई बात को दिल में संजो कर आ गया हूँ एक छोटी बहर की ग़ज़ल के साथ। गुरु जी ने अपना बेशकीमती वक्त देकर इसे इस लायक बनाया है.

बहरे रमल मुरब्बा सालिम (२१२२-२१२२)

झूठ भी सच सा जहाँ है।
प्रेम की ये वो जुबां है
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ये भला इज़हार कम है
बस ख़मोशी दरमियां है
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सच बताऊँ बात इक मैं
उनके ख़त की भी ज़ुबां है।
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लोग पीछे जिस खुशी के
सोचता हूँ वो कहाँ है।
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बात घर की दब न पाई
आग बुझ के भी धुआं है।
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हो गया हूँ यूँ तो बूढा
तुमसे मेरा दिल जवां है।
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आज जो भी कुछ कहीं मैं
नींव बाबा और माँ है।

अभी तक के लिए ये ग़ज़ल फ़िर मिलेंगे जल्द ही......................... अरे रुकिए एक बात बताना तो भूल गया ही गया आप सबको, की मेरी अगली पोस्ट बहुत खूबसूरत होने वाली है, अब आप कहेंगे गुरूर में बोल रहा हूँ। अरे नही जनाब, दरअसल २४ अक्टूबर को भोपाल जा रहा हूँ (गुरु जी के करीब ही)..................और बम्पर न्यूज़ ये है की ३ महीने के लिए यानी बहुत कुछ सीख लूँगा गुरु जी से।
(नोट:- अगर कुछ लोग जल और चिढ रहे हों तो शुक्रिया, इसे लखनऊ से जोड़ा जाए तो बात समझ में आएगी और विस्तृत जानकारी वहीँ से मिलेगी)

12 October 2009

ग़ज़ल - मेरे अंदाज़ में तू घोल बचपन की उमर वो इक

आ गया हूँ आपके सामने एक नयी ग़ज़ल के साथ. तिरछी कलम से लिखी हुई ग़ज़ल, अब आप सोच रहे होंगे ये भला तिरछी कलम से लिखी हुई ग़ज़ल क्या होती है? दरअसल पंतनगर में जब मैं शुरूआती दौर में ग़ज़ल (बेबहर) लिखा करता था तो मेरे साथ मेरे हमउम्र के शायर दोस्त भी थे और हम सब दोस्त अपनी ग़ज़ल एक दुसरे को सुनाया करते थे. उस वक़्त ज्यादतर ग़ज़लें मोहब्बत की सेंट्रल थीम में आती थी और जो कोई ग़ज़ल मोहब्बत का लिबास छोड़ कर कोई और चोगा ओढ़ लिया करती थी तो हम उसे तिरछी ग़ज़ल कहते थे जो लिखी जाती थी तिरछी कलम से. तो ये ग़ज़ल भी कुछ ऐसे ही है. हम लोगों ने अलग ही लफ्ज़ चुन रखे थे हर चीज़ के लिए, आगे उनसे भी आपको मिल वौंगा मगर अभी आप लीजिये इस तिरछी ग़ज़ल का मज़ा................
बहरे हजज मुसमन सालिम (१२२२-१२२२-१२२२-१२२२)
(गुरु जी के आशीवाद से कृत ग़ज़ल)

हजारों ढूँढती नज़रें कहाँ आखिर नज़र वो इक.
जो देखे दूर से आती उजालों की सहर वो इक.

अगर है देखना तुमको जुनु मंज़िल को पाने का
तो देखो चूमती साहिल समंदर की लहर वो इक.

मेरे अशआर सच्चे हो खुदा मांगू दुआ तुझसे
मेरे अंदाज़ में तू घोल बचपन की उमर वो इक.

अगर भटके नहीं इन्सां तो क्या वो सीख जायेगा
नहीं टकराएगा तो पायेगा फिर क्या डगर वो इक.

कहीं हैं ज़ात की बातें कहीं धर्मों की टक्कर है
मिटा देंगे सभी को ये बनेंगे जब ज़हर वो इक.

है बचपन शोख इक चिड़िया जवानी आसमां फैला
बुढापा देखता दोनों खड़ा तनहा शज़र वो इक.

तो अभी दीजिये इजाज़त जल्द ही हाज़िर हूँगा एक नयी ग़ज़ल के साथ..................