24 January 2011

ग़ज़ल - सोचिये, सोचना ज़रूरी है

जब मैंने ये खबर पढ़ी या कुछ ऐसी ही ख़बरें जिनमे बस स्थान में परिवर्तन रहा होगा, पढता हूँ तो लगता है कि वाकई हमने सोचना और सोच के काम करना बंद कर दिया है। हम सभी आँखें मूँद कर झुण्ड के झुण्ड में चले जा रहे हैं कदम से कदम मिलकर ना जाने किस ओर, इसका भी शायद ही किसी को पता हो ?

जब हमें कुछ सही करने का दायित्व मिलता है तो हम उससे नज़र चुरा कर, वक़्त की कमी का बहाना बना कर आगे निकल जाते हैं, और अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं और ऐसा चल रहा था, चल रहा है और शायद आगे भी चलता रहेगा...........क्योंकि वक़्त बदल जायेगा मगर हम नहीं।

(चित्र:- आभार निखिल कुंवर)

सोचिये, सोचना ज़रूरी है
आग को भी हवा ज़रूरी है

सोचिये है ख़ुदा ज़रूरी क्यूँ ?
छोड़िये…गर ख़ुदा ज़रूरी है

रूठ कर जाते शख़्स की जानिब
कम से कम इक सदा ज़रूरी है

आ मेरी नींद के मुसाफ़िर आ 
ख़ाब की इब्तिदा ज़रूरी है

ज़िन्दगी जीने का सबब माँगे
मैंने पूछा…कि क्या ज़रूरी है

दो जुदा रास्ते बुलाते हैं
और इक फैसला ज़रूरी है

अपने हालात क्या कहे दुनिया
बस ये जानो… दुआ ज़रूरी है

अजनबी शहर में मुसाफिर से
रास्तों की वफ़ा ज़रूरी है

जिस्म दो एक हों मगर पहले
रूह का राब्ता ज़रूरी है

२१२२-१२१२-२२/११२
बहरे खफीफ मुसद्दस मख्बून मक्तुअ अस्तर