30 March 2010

ग़ज़ल - गुनाहों को अपने छिपायें कहाँ तक

गुनाहों को अपने छिपायें कहाँ तक.
बहुत दूर जाके भी जायें कहाँ तक.

गलत राह पर उसका गिरना तो तय था 
भला साथ देती दुआयें कहाँ तक.

अहम् को बचाने की जद्दोज़हद में 
वो झूठी कहानी सुनायें कहाँ तक.

हमें खौफ़ गलती का बांधे हुए है 
मगर सच से नज़रे चुरायें कहाँ तक.

न मकसद कोई ज़िन्दगी का तिरे बिन 
ये साँसों से रिश्ता निभायें कहाँ तक.

मिरे मन मुसाफिर को यादों के रस्ते 
भटकने से आखिर बचायें कहाँ तक.

बहरे मुतकारिब मुसमन सालिम (१२२-१२२-१२२-१२२) पर ये ग़ज़ल कही गयी है, इसके बहुत से उदाहरण आपको गौतम भैय्या (मेजर गौतम राजरिशी जी) के ब्लॉग पे मिलेंगे.

अपने विचारों से इसका स्वागत करें...............

23 March 2010

२३ मार्च, १९३१

आज से ठीक ७८ वर्ष पहले, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु ने हँसते-हँसते फांसी के फंदे को चूमा था. कभी ना मरने वाले उस जज़्बे को सलाम.


९ अप्रैल, १९२९ को केंद्रीय सभागार में फेंके गए पर्चे में लिखा था.....................
"It is easy to kill individuals but you cannot kill the ideas. Great empires crumbled while the ideas survived."
इंक़लाब जिंदाबाद

15 March 2010

मेरे कुछ आवारा साथी

कुछ ज्यादा ही ख़ामोशी हो गयी इन दिनों इस ब्लॉग से मगर आज ये ख़ामोशी मेरे कानों में जोर से चीख के गयी है. चलिए इस चुप्पी को तोडा जाये. बिना पोस्ट के दोस्तों कौन सा मुझे अच्छा लग रहा था मगर वक़्त था कि इजाज़त ही नहीं देता था मगर आज बहुत मिन्नतों से माना है. 

मुंबई की ज़िन्दगी में किसी भी चीज़ की कमी नहीं है और आप तकरीबन हर चीज़ खरीद भी सकते हो मगर कमबख्त वक़्त नहीं. इसी ज़िन्दगी का एक हिस्सा अब मैं भी बन गया हूँ वैसे तो ये एक बहाना ही है नहीं लिखने का लेकिन अगर सच का चश्मा पहन के देखता हूँ तो दिखता है कि लिखने के लिए कुछ ख्याल ही नहीं थे और जो ज़ेहन में आ भी रहे थे उनको लिख के कलम से गद्दारी करने की गवाही ये दिल मुझे नहीं देता था. सुबह घर से ऑफिस और शाम को ऑफिस से घर की भागमभाग नए ख्यालों को कोई शक्ल नहीं दे पा रही थी कुछ आता भी तो लोकल की भीड़ में आके खो सा जाता था. 

अब ज़िक्र लोकल का आ ही गया है तो कुछ उसके बारे में भी कहता चलूँ, मुंबई की लोकल (लोकल ट्रेन) का सफ़र जो पहली दफा करेगा वो तो तौबा तौबा करने लगेगा अरे सफ़र करना तो दूर की बात रही उसकी सिम्त देख भी ले तो चढ़ने से घबरा जायेगा और सोचेगा चलो यार बस से निकला जाये या फिर ऑटो की  सवारी कर लें. कुछ ऐसा ही शुरू में मेरे साथ भी हुआ था मगर अब तो उसका भी मज़ा आने लगा है, वो लपक के ट्रेन में चढ़ना और आपके पीछे की भीड़ अपना पूरा ज़ोर आपके ऊपर लगाके दो क़दमों को रखने लायक जगह बना देती है, अपने लिए भी, आपके लिए भी. जब सांस लेने का मन करे तो सर ऊपर उठा के वो भी ले लो लेकिन पहले तो इस रस्साकशी को देख के ही घबराहट हो जाती थी वो दरवाजे के बाहर निकली लोगों २ सतहें (अन्दर का मंज़र छोडिये), बस एक सिरा पकड़ लो और सवार हो जाओ बाकी सब कुछ गर्दी (भीड़ )कर देगी, अगर उतरना है तो गर्दी उतार भी देगी और अगर इस गर्दी का मन नहीं किया तो आप अपने स्टॉप से एक या दो स्टॉप आगे उतरोगे.

लगता है हर कोई भाग रहा है और भागे जा रहा है...........और आपको भी भागना पड़ेगा नहीं तो पीछे वाले आपको भगाते हुए अपने साथ ले चलेंगे, इतना ख्याल यहाँ सब लोग एक दुसरे का रखते हैं. इतनी भीड़ है मगर एक तन्हाई सी पसरी रहती है हर कोई इंतज़ार कर रहा होता है कि कब उसका स्टॉप आये और वो इस पिंजरे से छूट के अपनी दुनिया कि ओर उड़ चले. कोई अपने में गम है तो कोई रेडियो FM में बजते हुए गानों की धुनों में सर घुमा रहा है क्योंकि पैर को हिलाने की इजाज़त नहीं है, कोई भगवान् को याद कर रहा है (हनुमान चालीसा, बाइबिल, क़ुरान की आयतें आदि पढ़ रहा है), कोई अखबार के सहारे समाज से रूबरू हो रहा है, तो कोई ग़ज़ल सोच रहा है (मैं).........................
इसी उधेरबुन में, एक अशआर बना था जिससे अब आप सब भी रूबरू हो जाइये.

शाम सवेरे करता रहता दीवारों से पागल बातें.
मेरे कुछ आवारा साथी, तेरे ख़त औ' तेरी यादे.
जिसको देखो ख़ुद में गुम है कैसा शहर "सफ़र" ये तेरा
आदम तो लगते हैं लेकिन चलती फिरती जिंदा लाशें.

जल्द ही आता हूँ एक ग़ज़ल के साथ...................अरे सच कह रहा हूँ इस बार ये जल्दी एक महीने से पहले आ जाएगी.