04 December 2009

ग़ज़ल - उठो कि कुछ नया करें

आजकल भोपाल में डेरा जमाये हुए हूँ। पिछली पोस्ट में किये गए वादे के मुताबिक एक नयी ग़ज़ल के साथ हाज़िर हूँ, जो गुरुदेव  के आशीर्वाद से कृत है.

उठो कि कुछ नया करें।
ज़मीं को फिर हरा करें।

हमारा हक़ गया, कहाँ
चलो ज़रा पता करें।

जो प्‍यार से मिले उसे
मुहब्बतें अता करें।

न सूर्य बन सकें अगर
चराग बन जला करें।
.
बुजुर्ग जो हैं कह रहे
जवां उसे सुना करें।

ख़ुशी के दाम हैं बहुत
ग़मों से जी भरा करें।

न लुप्त हो हँसी कहीं
मिला करें, हँसा करें।

तमाशबाज़ सोच में
अब इसके बाद क्या करें।

ये ज़िन्दगी है चाय गर
तो चुस्कियां लिया करें। 

अभी हाल-फिलहाल में दोस्तों के साथ जबलपुर की सैर करके आया हूँ, उसी यात्रा से जुड़े हुई कुछ यादें फोटो की शक्ल में आपसे मुखातिब हैं।

धुआंधार, माँ नर्मदा का पावन जल
 
पंचवटी भेराघाट, संगमरमर के लिए मशहूर (रात में कई रंगों में नज़र आता है संगमरमर)

@ भेराघाट

27 November 2009

ग़ज़ल - वो परिंदे नए चहचहाते रहे

वैसे तो ये ग़ज़ल, आप से गुरु जी के ब्लॉग पे तरही मुशायेरे में रूबरू हो चुकी है. कुछ पुरानी भी हो गयी है मगर कहते है ना पुरानी चीज़ या कहें की ग़ज़ल और निखरती है तो इसी आस में इस ग़ज़ल को यहाँ ले आया.

वैसे जब गुरु जी से मुलाकात हुई तो कुछ गलतियों से या कहूं बहुत सी गलतियों से साक्षात्कार होना लाजिमी था. उन्ही में से एक गलती इस ग़ज़ल में छुपी हुई थी इस ग़ज़ल के एक शेर का मिसरा पहले यूँ था "इक शरारत दुकां ने करी उससे यूँ", इसमें एक लफ्ज़ "करी" आया था जो सही कहें तो सही नहीं है वो तो हम अपनी आम बोलचाल की भाषा में इसे शामिल कर चुके है और जबरदस्ती इसका वजूद बना रहे हैं,तो उसी को सुधार कर ग़ज़ल आपके सामने पेश कर रहा हूँ.
अर्ज़ किया है.............

साथ बीते वो लम्हें सताते रहे.
दूर जब तुम गए याद आते रहे.
.
एक नकली हंसी ओढ़ के उम्र भर,
दर्द जो दिल में था वो छिपाते रहे.
.
आसमां छूने का ख़्वाब दिल में सजा,
हम पतेंगे ज़मीं से उड़ाते रहे.
.
दांव पेंचों से वाकिफ़ नहीं चुगने के,
वो परिंदे नए चहचहाते रहे.
.
इक शरारत दुकां कर गयी उससे यूँ,
कुछ खिलौने उसे ही बुलाते रहे.
.
खौफ हासिल हुआ हादसों से मुझे,
ख़्वाब कुछ ख़्वाब में आ डराते रहे.
.
आंधियां हौसलों को डिगा ना सकीं,
दीप जलते रहे झिलमिलाते रहे.

एक बात आप सभी को और बताते हुए चलता हूँ इस तरही मुशायेरे में अज्ञात शख्स (गुरु जी) के नाम से एक ग़ज़ल लगी थी जो गौतम भैय्या की पारखी नज़र से बच ना सकी, गुरु जी ने उस ग़ज़ल पे मात्र जी हाँ मात्र ४०-५० शेर लिखे थे जिसमे से सिर्फ कुछ ही हम सबको पढने को मिले थे.            

इस पोस्ट में अभी इतना ही, अगली पेशकश में एक नयी ग़ज़ल के साथ मिलूँगा आपसे, ये वादा रहा.
चलते-चलते परी और पंखुरी का एक चित्र छोड़ जा रहा हूँ..................
 

21 November 2009

एक लिफ़ाफ़े में रक्खी हैं मिसरी सी यादें

देखिये कितना कहा जाता है...
यूँ तो लिखने को बहुत कुछ है मगर शायद सब न समेट पाऊँ। वैसे आप लोगों को ये ख़बर तो होगी ही कि मैं आजकल भोपाल में हूँ और सीहोर में भी उपस्थिति दर्ज़ करवा रहा हूँ। गुरु जी से मिलना किसी सपने के सच होने जैसा है और उस पे ढ़ेर सा प्यार जो मिला है उसे लफ़्ज़ों में ढ़ालने में डर लग रहा है की कहीं कुछ छूट ना जाये। 

३१ अक्टूबर २००९ का दिन मेरे लिए कुछ ज्यादा ख़ास है, शाम को भोपाल से सीहोर के लिए निकल पड़ा था और घंटे भर के सफ़र के बाद गुरु जी से भेंट..........
कुछ वक़्त ही बीता था और गुरु जी ने पहले से तय कार्यक्रम के तहत "नव दुनिया" में साक्षात्कार करवा दिया, उसकी एक झलक यहाँ देखिये, मेरा पहला साक्षात्कार था और वो भी एक्सटेम्पोरे की शक्ल में जो भी दिल कह पाया लफ़्ज़ों में ढ़ाल दिया। 
इस तरफ़ साक्षात्कार का पूरा होना था और दूजी ओर तैयार था दूसरा सरप्राइज .....कवि सम्मलेन........मेरी रश्क़ करने वाली किस्मत देखिये, मोनिका हठीला दीदी का इसी वक़्त सीहोर आना मेरे लिए ख़ास बन पड़ा। वैसे विस्तृत प्रस्तुति आप गुरु जी के ब्लॉग पे पढ़ ही चुके होंगे और अगर नहीं पढ़ा है तो यहाँ पढ़े
अब जिसको रश्क़ करना वो बिना रोकटोक करे। अगला दिन यानी कि १ नवम्बर २००९, गुरु जी से लम्बी गुफ़्तगू का दौर चला, ढ़ेर सारी बातें हुई और बातों ही बातों में कई बातें सीखने को मिली। साथ ही साथ परी और पंखुरी का नटखट साथ मिला जिसमें ख़ूब सारी मस्ती घुली थी जिस ने मुझे मेरे बचपन की ओर वापिस धकेल दिया, दोनों बहुत-बहुत प्यारी हैं और उन के वक़्त कब गुज़रा, पता ही नहीं चला। 
 
                         ***परी***                                         ***पंखुरी*** 



इस ख़ास मुलाकात ने नये नए दोस्त सोनू, सनी, सुधीर भी दिये। कल यानी २० नवम्बर को परी का जन्मदिन था, वो भी साथ ही सेलिब्रेट किया। इन सब यादों को ज़िन्दगी की डायरी में सहेज के रख लिया है। 

20 October 2009

ग़ज़ल - झूठ भी सच सा जहाँ है

पिछली ग़ज़ल पे आप सब से मिली हौसलाफजाई और गौतम भैय्या से हुई बात को दिल में संजो कर आ गया हूँ एक छोटी बहर की ग़ज़ल के साथ। गुरु जी ने अपना बेशकीमती वक्त देकर इसे इस लायक बनाया है.

बहरे रमल मुरब्बा सालिम (२१२२-२१२२)

झूठ भी सच सा जहाँ है।
प्रेम की ये वो जुबां है
.
ये भला इज़हार कम है
बस ख़मोशी दरमियां है
.
सच बताऊँ बात इक मैं
उनके ख़त की भी ज़ुबां है।
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लोग पीछे जिस खुशी के
सोचता हूँ वो कहाँ है।
.
बात घर की दब न पाई
आग बुझ के भी धुआं है।
.
हो गया हूँ यूँ तो बूढा
तुमसे मेरा दिल जवां है।
.
आज जो भी कुछ कहीं मैं
नींव बाबा और माँ है।

अभी तक के लिए ये ग़ज़ल फ़िर मिलेंगे जल्द ही......................... अरे रुकिए एक बात बताना तो भूल गया ही गया आप सबको, की मेरी अगली पोस्ट बहुत खूबसूरत होने वाली है, अब आप कहेंगे गुरूर में बोल रहा हूँ। अरे नही जनाब, दरअसल २४ अक्टूबर को भोपाल जा रहा हूँ (गुरु जी के करीब ही)..................और बम्पर न्यूज़ ये है की ३ महीने के लिए यानी बहुत कुछ सीख लूँगा गुरु जी से।
(नोट:- अगर कुछ लोग जल और चिढ रहे हों तो शुक्रिया, इसे लखनऊ से जोड़ा जाए तो बात समझ में आएगी और विस्तृत जानकारी वहीँ से मिलेगी)

12 October 2009

ग़ज़ल - मेरे अंदाज़ में तू घोल बचपन की उमर वो इक

आ गया हूँ आपके सामने एक नयी ग़ज़ल के साथ. तिरछी कलम से लिखी हुई ग़ज़ल, अब आप सोच रहे होंगे ये भला तिरछी कलम से लिखी हुई ग़ज़ल क्या होती है? दरअसल पंतनगर में जब मैं शुरूआती दौर में ग़ज़ल (बेबहर) लिखा करता था तो मेरे साथ मेरे हमउम्र के शायर दोस्त भी थे और हम सब दोस्त अपनी ग़ज़ल एक दुसरे को सुनाया करते थे. उस वक़्त ज्यादतर ग़ज़लें मोहब्बत की सेंट्रल थीम में आती थी और जो कोई ग़ज़ल मोहब्बत का लिबास छोड़ कर कोई और चोगा ओढ़ लिया करती थी तो हम उसे तिरछी ग़ज़ल कहते थे जो लिखी जाती थी तिरछी कलम से. तो ये ग़ज़ल भी कुछ ऐसे ही है. हम लोगों ने अलग ही लफ्ज़ चुन रखे थे हर चीज़ के लिए, आगे उनसे भी आपको मिल वौंगा मगर अभी आप लीजिये इस तिरछी ग़ज़ल का मज़ा................
बहरे हजज मुसमन सालिम (१२२२-१२२२-१२२२-१२२२)
(गुरु जी के आशीवाद से कृत ग़ज़ल)

हजारों ढूँढती नज़रें कहाँ आखिर नज़र वो इक.
जो देखे दूर से आती उजालों की सहर वो इक.

अगर है देखना तुमको जुनु मंज़िल को पाने का
तो देखो चूमती साहिल समंदर की लहर वो इक.

मेरे अशआर सच्चे हो खुदा मांगू दुआ तुझसे
मेरे अंदाज़ में तू घोल बचपन की उमर वो इक.

अगर भटके नहीं इन्सां तो क्या वो सीख जायेगा
नहीं टकराएगा तो पायेगा फिर क्या डगर वो इक.

कहीं हैं ज़ात की बातें कहीं धर्मों की टक्कर है
मिटा देंगे सभी को ये बनेंगे जब ज़हर वो इक.

है बचपन शोख इक चिड़िया जवानी आसमां फैला
बुढापा देखता दोनों खड़ा तनहा शज़र वो इक.

तो अभी दीजिये इजाज़त जल्द ही हाज़िर हूँगा एक नयी ग़ज़ल के साथ..................

18 September 2009

ग़ज़ल - तेरा दीवाना मैं पागल फिरूं आवारा गलियों में

कैसे हैं आप सब लोग?
मुंबई वापिस लौट आया हूँ लखनऊ से, वहां कंचन जी से मिलना हुआ (सभी का सलाम उन्हें दे दिया है तो कोई नाराज़ नहीं होना)। खूब खातिरदारी हुई उनकी दीदी के घर में, एक कारन तो कंचन जी से पहली बार मिलने का था और दूसरा उनकी पदोन्नति का (आपको पता है की नहीं, अरे जल्दी उनसे मिठाई मांगिये और खाइए)।
अब ज़्यादा तारीफ क्या करूँ उनकी, बस इतना ही कहना चाहूँगा, जो लोग उनसे नहीं मिले हैं ज़रूर मिले, बहुत बातें करती हैं और अच्छी बातें करती हैं।
____________________________________________

चलिए आपको अपनी एक ग़ज़ल से रूबरू करवाता हूँ, बहरे हजज की ये ग़ज़ल गुरु जी का स्नेह प्राप्त कर आपसे मिलने के लिए बेकरार है तो लीजिये........अर्ज किया है।

तेरा दीवाना मैं पागल फिरूं आवारा गलियों में।
तेरी चाहत मोहब्ब्त ही सजा रक्खी है नज़रों में।
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मेरी दीवानगी, आवारगी तुझसे जुड़े किस्से
वो मुद्दे बन गए हैं बात के अब तेरी सखियों में।
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ज़रा कुछ गौर से देखो मुझे पहचान जाओगे
अमूमन रोज़ तो मिलते हो मुझसे अपने सपनों में।
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मेरी तुम आरज़ू हो, प्यार हो, जाने तमन्ना हो
मुहब्बत की तड़प हो वो संवरती है जो बरसों में।
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नज़र पड़ते ही मुझपे वो तेरा शरमा के मुस्काना
ये जलवे और अदाएं तो सुना करते थे किस्सों में।
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भुलाना भी अगर चाहे "सफ़र" तो है नही मुमकिन
वो यादों में, वो बातों, वो आंखों में, वो साँसों में।

30 August 2009

हमारा बचपन कुछ खास था...........

क्या आप बचपन के उन बेफिक्र और मस्ती भरे दिनों की कमी महसूस कर रहे हैं? मैं तो कर रहा हूँ...........
कभी कभी लगता है की सुविधाएँ हमें बहुत कुछ देकर बहुत कुछ छीन भी लेती है. जब मैं छोटा था तो तब घर में दूरदर्शन के अलावा कोई और चैनल नहीं आता था और अगर कहीं था भी तो हर किसी की पहुँच में नहीं था. मगर आज तो बाढ़ आ गई है हर साल, या कहूं हर हर महीने और हर हफ्ते कोई ना कोई नया चैनल आ जाता है. कुछ याद आया इसे देखकर, अरे ये दूरदर्शन का स्क्रीन सेवर था जो एक विशेष आवाज़ के साथ कभी आ जाता था और कहता था "रूकावट के लिए खेद है". जब हमारे पास मोबाइल फ़ोन नहीं था तब भी हम अपनों से जुड़े रहते थे, किसी को मिस कॉल देने की बजाय उसके घर के बाहर खड़े होकर जोर से उसका नाम चिलान्ना याद है आपको. तब हमारे पास प्ले स्टेशन, कंप्यूटर और आजकी वो हजारों चीजे नहीं थी मगर उस वक़्त हमारे साथ हमारे सच्चे दोस्त थे, जिनके साथ हम गली, मोहल्ले के खेल खेला करते थे और हमारे खेल कितने अजीब और दिलचस्प होते थे जैसे छुपन छुपाई, गिल्ली डंडा, कंचे और क्रिकेट तो होता ही था. अजीब इसलिए आजकल के बच्चे वो भूलते से जा रहे हैं, या फिर ये खेल काफी छोटे हो गए हैं उनके लिए. वापिस दूरदर्शन पे लौटता हूँ, चुनिन्दा कार्यक्रम और उनके लिए दीवानगी ही अलग होती है. शुक्रवार शाम ४ बजे "अलादीन और जिन्नी", रविवार की सुबह और "रंगोली", बुधवार और शुक्रवार की शाम का "चित्रहार", और चंद्रकांता, मालगुडी देस, सुरभि, भारत एक खोज, तहकीकात, देख भाई देख, व्योमकेश बक्षी, टर्निंग पॉइंट, अलिफ़ लैला, नीम का पेड़, हम लोग, बुनियाद, जंगल बुक और भी बहुत से यादगार लम्हें और विशेष रूप से "रामायण" और "महाभारत" जिन्होंने टी. वी. पे भी इतिहास रचा. मगर आज के वक़्त में हर किसी के पास विकल्प है और वो भी कई अनेक सुविधाओं के साथ. बातें तो कई हैं जो एक एक करके निकलती जाएँगी, अभी आपको छोड़ जा रहा हूँ एक खूबसूरत विडियो के साथ जिसे आपने पहले कई बार सुना होगा, फिर से अपनी यादों को ताजा कर लीजिये..........

22 August 2009

ग़ज़ल - जब ख़ुद से मिलता हूँ अक्सर

राजस्थान में एक महीने की ट्रेनिंग के बाद कुछ ही वक़्त बिताया मुंबई में और फिर आ गया उत्तर प्रदेश में, वैसे आजकल लखनऊ में डेरा जमाया हुआ है और यहीं पर बना रहेगा ९ सितम्बर तक. वीनस जी ने पूछा था की इलाहाबाद कब आना हो रहा है? वीनस जी इस बार तो मौका नहीं मिल पायेगा अगली बार पूरी कोशिश रहेगी.

हाज़िर हूँ आप सबके सामने एक छोटी बहर (बहरे मुतदारिक मुसमन मक्तूअ २२-२२-२२-२२) की ग़ज़ल के साथ, जो गुरु जी का आर्शीवाद पाकर, आपका प्यार लेने के लिए आ गई है.

जब ख़ुद से मिलता हूँ अक्सर
सोच हजारों लेंती टक्कर

जंग छिडी लगती दोनों में
बारिश की बूंदे औ' छप्पर

खेल गली के भूल गए सब
जब से घर आया कंप्यूटर

नफरत, आदम साथी लगते
याद किसे अब ढाई आखर

कद ऊँचा है जिन लोगों का
आंसू अन्दर, हंसते बाहर

ज़ख्म कहाँ भर पाए गहरे
आँखों में सिमटे हैं मंज़र

हर अच्छा है तब तक अच्छा
जब तक मिल पाए ना बेहतर

पिछली बार नीरज जी ने कहा था की जयपुर की कोई फोटो नहीं लगाई, वैसे लगाई तो थी मगर लीजिये एक और सही. ये अलबर्ट म्यूज़ियम के बाहर का नज़ारा है. अभी तक के लिए इतना ही, जल्द ही हाज़िर होता हूँ।

04 August 2009

राजस्थान में गुज़रे कुछ हसीं पल......

राजस्थान जाने का अवसर मिलना मेरे लिए एक खास बात थी क्योंकि इससे पहले मैं कभी वहां गया नही था और काफी तमन्ना थी इसे करीब से देखने की जो पूरी हुई मैंने ऑफिस के काम के साथ-साथ घूमने का कोई मौका नही गवाया और काम से फुर्सत मिलते ही निकल पड़ता था उस जगह की प्रसिद्ध स्थानों को देखने राजस्थान में जयपुर, चित्तोर, उदयपुर, जोधपुर और अजमेर को देखने का सौभाग्य मिला
"दाल भाटी चूरमा" का स्वाद भूल नही सकता, "मिर्च बड़ा" और "मावे की कचोरी" के क्या कहने (लिखते हुए भी मुंह में पानी आ रहा है)। जाने से पहले नीरज जी से कुश जी का नम्बर लिया, पहचान गए ना........कुश की कलम वाले, और वहां मैंने उन्हें बिना देरी किए कॉल लगा दी, मगर मैं तो उन्हें जानता था पर वो मुझे नही। एक अनजान शख्स से कॉल और मुलाक़ात की बात उन्हें कुछ अजीब सी लगी मगर नीरज जी के नाम ने मेरी एक पहचान करा दी और मुलाक़ात का वक्त क्रिस्टल पाम में मुक़र्रर हुआ।
कुश जी ने जयपुर के एक और ब्लॉगर सय्यद जी को भी बुला लिया सोने पे सुहागा। सय्यद जी लविज़ा नाम से अपना ब्लॉग लिखते हैं जो उनकी नन्ही परी(बिटिया) का नाम है और उसकी शरारतों को अपने लफ्ज़ देते हैं। दोनों का साथ मेरे लिए कुछ अनमोल था और वो गुज़रे लम्हें एक हसीं याद बन गए। बातों ही बातों में कई बातें निकली और वक्त कब छू हो गया पता ही नही चला।
कुछ घूमी जगह के चित्र छोड़ जा रहा हूँ आपके लिए...................

(ये है चित्तोर किले में वो जगह जहाँ पे रानी पद्मावती ने जोहर किया था)


(ये है कृष्ण दीवानी मीरा जी का मन्दिर)

(ये है शीश महल चित्तोर दुर्ग में)

(मुझे तो पहचान ही गए होंगे)

अब जल्द ही उत्तर प्रदेश जाना है, देखिये किस-किस से मुलाक़ात होती है।


28 July 2009

ग़ज़ल - मेरे हौसलों में दुआ आपकी है

सबको नमस्कार,
जैसे पूरे देश में सूखे के हालत थे या हैं वैसे कुछ वक्त से मेरा ब्लॉग भी एक अदद पोस्ट की मार झेल रहा था मगर आज उसमे एक नई ग़ज़ल की बारिश हो गई है...........
मगर इस हालत के कुछ कारन थे, दरअसल आजकल मैं अपने ठिकाने(मुंबई) से दूर राजस्थान में हूँ या सीधे कहूं तो नीरज जी के वतन में हूँ। काम की व्यवस्तता के कारन वक्त नही मिल पाया मगर इस काम के कारन राजस्थान घूमने का मौका मिला और इस ज़मीं को करीब से देखने का सौभाग्य भी। साथ में सोने पे सुहागा वाली बात:- जाने माने ब्लॉग जगत के चेहरों (कुश जी और सैय्यद जी) से मुलाक़ात की शाम नसीब हुई. जल्द ही हाज़िर हूँगा राजस्थान रिपोर्ट के साथ मगर अभी लुत्फ़ लीजिये इस ग़ज़ल का, आपके सुझावों का इंतज़ार रहेगा........
बहरे मुतकारिब मुसमन सालिम (१२२-१२२-१२२-१२२)
(गुरु जी के आर्शीवाद से कृत ग़ज़ल)
लगी हाथ पे जो हिना आपकी है।
लिखी बात आयत में क्या आपकी है।

ज़रा सी बनावट भी ख़ुद में ना लाना,
हया आपकी ही अदा आपकी है।

मुहब्बत में पाना ही सब कुछ नहीं है,
ये एक बात गहरी सुना आपकी है।

मुझे अजनबी की तरह देखती है,
नज़र लग रही कुछ खफा आपकी है।

कभी भी तुम्हे ग़म ना होने दिया है,
कोई ज़िन्दगी को जिया आपकी है।

मुझे मुश्किलों से भला क्यों शिकायत,
मेरे हौसलों में दुआ आपकी है।

25 June 2009

दास्ताँ-ए-बारिश और चंद शेर

मुंबई में बारिश ने दस्तक दे दी है और मेरे घर पे कुछ खास अंदाज़ में दी है। अपने नए मेहमान का इस्तकबाल कुछ खास तरीके से किया जिसे वो शायद भुला ना पाए। हर शनिवार और रविवार को ऑफिस में काम करना मना है सीधे कहूं तो छुट्टी है। मैं इसी मौके का फायदा उठा कर अपने दोस्तों से मिलने निकल जाता हूँ, और वापसी होती है रविवार की रात को। दोस्तों के साथ रिमझिम बरस रही बारिश की बूंदों का लुत्फ़ उठाया तो बचपन की पुरानी यादें ताज़ा हो गई, याद आ गए वो दिन जब भीगने के बहाने ढूँढा करते थे और घर में भीगने में डांठ इंतज़ार करती थी. इसी मौज़ूँ पे लिखा हुआ एक शेर याद आ रहा है.........
"माँ की डांठ नही भूले,
जब बारिश में भीगे थे."
मलाड से वापसी पे मौसम बहुत सुहाना था, हवा ने ताज़गी की चादर ओढ़ ली थी और वो एक खूबसूरत एहसास दे रही थी। अपने ठिकाने की ओर बढता हुआ जब कमरे की सिम्त जा रही सीढियों पे चढ़ रहा था तो उनपे लिपटी हुई मिटटी और गुज़रे हुए लोगों के क़दमों के निशाँ गवाही दे रहे थे की आज बारिश ने लोगों को एक सुकून भरी साँस दी है, रोज़ की चिलचिलाती धूप से।
शायद बारिश ने मेरी ब्लॉग पे की गई पिछली पोस्ट पढ़ी होगी "घर में कोई मेहमां आने वाला है...." और सोचा होगा चलो इसके घर पे दस्तक दे ही दूँ, बेचारा किसी को पुकार रहा है। घर का दरवाजा खोला तो पहली नज़र में कुछ नज़र नही आया क्योंकि कमरे में बिखरा अँधेरा मुझे देखने की इजाज़त नही दे रहा था मगर जैसे ही रौशनी ने उसके इरादे रोके और आंखों को खुल के देखने की रास्ता दिया तो एक अलग ही मंज़र था उन बेबस नज़रों के सामने.............
........कमरे में आया हुआ पानी मुस्कुरा के कह रहा था कैसे हो, दो दिन मज़े में काट के आ गए अब और मज़े लो, वैसे ज़्यादा कुछ सामान तो अभी जोड़ा नही मगर जितना भी था वो मेरी ज़रूरत के हिसाब से बहुत था मगर पानी अपनी बाहों में भर के उन सब का बोसा ले रहा था और उसके शिकार हुई मेरी डायरी, मेरे सोने का गद्दा और कुछ बदनसीब कागज़। बस अब एक ही काम रह गया था पानी को बा-इज्ज़त उसका सही रास्ता दिखने का। वो रात तो लिखी थी फर्श के नाम और सोने का अब वो ही ठिकाना था..............मगर उसका भी एक अलग मज़ा था जो ज़िन्दगी भर एक याद बन के जिंदा रहेगा और आगे सम्हल के रहने की हिदायत देगा मुंबई की बारिश से।

इस पोस्ट को इसके अंजाम तक पहुँचने से पहले, दो आज़ाद शेरों को आपके हवाले कर रहा हूँ................

"बोलने के झूठ सब आदी हुए यारों,
बिन बनावट सच कहाँ बेबाक आए है
फ़ोन ने, -मेल ने लम्हें हसीं छीने,
प्यार का वो ख़त कहाँ अब डाक आए है।"
aa

18 June 2009

ग़ज़ल - चीज़ मुहब्‍बत है जादू की इक चाबी

सलाम दोस्तों,
फ़िर से आपके सामने हूँ एक नई ग़ज़ल के साथ जो गुरु जी (पंकज सुबीर जी) के आर्शीवाद से इस रूप में आई है।
चीज़ मुहब्‍बत है जादू की इक चाबी।
लहजा बदला, बातें भी बदली बदली।

उनसे मिलना सालों बाद करे पागल,
खत को खोल टटोल रहा बातें पिछली।

हाथ पकड़ जिसको सिखलाया था चलना,
काश वही बनता बूढे की बेसाखी।

बात चुनावों की है तो वे जागे हैं,
नेता क्या हैं जैसे मेढंक बरसाती।

घर की सूखी रोटी अच्छी बाहर से,
बात समझ में आई है अब अम्‍मा की।

ख्वाब सलोने छोड़ अभी, कोशिश तो कर,
मंजिल को पा जाता है बहता पानी।

घर में कोई मेहमा आने वाला है,
छत पे बैठा कौवा बोल रहा ये ही।

ग़ज़ल का आखिरी शेर "घर में कोई मेहमा आने वाला है, छत पे बैठा कौवा बोल रहा ये ही।" जो मैंने लिखा है का ख्याल ऐसे आया की हमारे वहां (उत्तराखंड) ये मान्यता है अगर छत की मुंडेर पे बैठ के कौवा अगर बोले तो वो कोई मेहमान के आने का सन्देश होता है.

03 June 2009

पढ़ाई ख़त्म, पहली नौकरी और भी बहुत कुछ पहला ...........

सबको मेरा सलाम,
जल्द आने का वादा किया था मगर देर हो गई मगर उस देर की कुछ वजह है। पहले जैसे दिन अब नही रह गए हैं, जब तक पुणे में पढ़ाई कर रहा था तब तक २४*७ नेट का साथ रहता था मगर जैसे ही पढ़ाई पूरी हुई और नौकरी लगी तो फ़िर सुख के वोदिन भी गए। मई १५, २००९ को वाशी, नवी मुंबई में National Co-operative Agriculture & Rural Development Banks' Federation Ltd. "केंद्रीय सहकारी कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक महासंघ" में कार्यभार सम्हाला। कुछ दिनों तक तो अतिथि भवन में मजे किए मगर जल्द ही अपना ख़ुद का ठिकाना ढूँढने के लिए भाग दौड़ शुरू कर दी, कुछ मुश्किलों के बाद कामोठे में किराये का एक फ्लैट मिल गया। महीना ख़त्म होते होते पहली तनख्वाह भी मिल गई, जिसे पाकर एक अलग ही आनंद की अनुभूति हुई (जिसे लफ्जों में बयां करना मेरे बस की बात नही).
अरे ..............एक बहुत ज़रूरी बात तो बताना ही भूल गया, गुरु जी से नीरज जी का मोबाइल नम्बर लिया और उनसे बात हुई और मज़ा आ गया, जल्द ही उनसे मिलने भी जाऊंगा।
पिछले तरही मुशायेरे में हिस्सा नही ले पाया मगर इस बार पूरी तैयारी है।
एक नई ग़ज़ल के साथ जल्द ही आपका स्नेह पाने के लिए आऊंगा........................
......................फिर मिलेंगे जल्द ही।

02 May 2009

ग़ज़ल - शब के बोझ से कभी सहर थकी नहीं

आप सभी को मेरा नमस्कार,
काफी दिनों बाद ब्लॉग पे आना हुआ है, पहले माफ़ी मांगना चाहूँगा................
पुणे से जाने के बाद सीधे घर का रुख किया था और घर जाके वक्त का पता ही नही चला, इसी बीच में दिल्ली आना भी हुआ, फ़िर लगा की काफ़ी दिनों तक मस्ती कर ली.........
एक ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ, मुझे मेरी गलतियों से अवगत कराएँ।

शब के बोझ से कभी सहर थकी नहीं।
ज़िन्दगी बढे चली मगर थकी नहीं।

रेत की ज़मीं पे, नीर की तलाश में,
बाजुएं थकी नहीं, कमर थकी नहीं।

कर फतह हज़ार पे, नयी को ढूँढने,
चल पड़ी तलाश में, नज़र थकी नहीं।

आग बन गयी वो बात जो ज़रा सी थी,
खौफ भर गयी मगर खबर थकी नहीं।

जानकार के है किनारा आखिरी में ही,
जूझती ही वो रही, लहर थकी नहीं।


*********

26 March 2009

अलविदा ओ VAMNICOM.................... ३१ मार्च २००९

आप सभी को मेरा नमस्कार,
आज कहने को बहुत कुछ है मगर ये तय नही कर पा रहा हूँ, कैसे कहूं और क्या-क्या कहूं।

मैं पंतनगर उत्तराखंड से दो साल पहले "गोविन्द बल्लभ पन्त कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय" से कृषि स्नातक करके VAMNICOM, पुणे MBA करने आया और अब जाने का दिन आ गया है। इन दो सालों में बहुत कुछ पाया है मैंने। इस ब्लॉग की शुरुआत हुई (२८ जनवरी, २००८) को और फ़िर तो आप सब का प्यार मिलता रहा।

लिखता मैं पंतनगर से ही था मगर ग़ज़ल की बारीकियां नही मालूम थी, उन बारीकियों को मुझे सिखाने के लिए उस इश्वर ने मेरा परिचय एक फ़रिश्ते (गुरु जी, पंकज सुबीर जी) से करवाया।

असल में इस मिलन का अपरोक्ष रूप से शुक्रिया जाता है समीर लाल जी को, अब पूछेंगे वो कैसे?
वो ऐसे की, मैंने ब्लॉग पे अपनी बिन बहर की गज़लें लिखनी शुरू कर दी थी ब्लॉग्गिंग के जूनून में, एक दिन समीर लाल जी अपनी उड़न तश्तरी से मेरे ब्लॉग पे उतरे और एक टिपण्णी छोड़ के चले गए, अपने ब्लॉग पे पहली टिपण्णी पाकर उस व्यक्ति के बारे में जानने की इच्छा हुई और उनके ब्लॉग को पढ़ डाला। उसमे समीर जी ने ग़ज़ल की क्लास्सेस का ज़िक्र किया था और पता था पंकज सुबीर(गुरु जी)। बस आव देखा न ताव पूरे ब्लॉग को १ दिन में पूरा पढ़ डाला उसमे लगी टिप्पणियों समेट।
इन दो सालों में काफी लोगों से जान पहचान हुई इस ब्लॉग के ज़रिये. और मेरे आधे-अधूरे ज्ञान को गुरु का साथ मिला. इन दो सालों के बारे में एक नज़्म लिखी है जो कॉलेज और हॉस्टल की मस्ती से लबालब जीवन के बारे में है. ये नज़्म मैं अपने दोस्तों को समर्पित करता हूँ...........


सोचा ना था इतनी जल्दी वक्त जाएगा गुज़र।

लम्हों में बदल जाएगा दो साल का ये एक सफ़र।

जब कभी मैं सोचता हूँ दिन वो कॉलेज के हसी,

MBA का excitement और पुणे की मस्ती,

आया था मैं दूर घर से लेके कुछ सपने यहाँ,

अजनबी जो लगते थे बन गए अपने यहाँ,

फ़िर हुआ क्लास्सेस का चक्कर बातें वही घिसी पिटी,

मगर थी स्लीपिंग अपनी हॉबी सोने में सब वो कटी,

कुछ थे अपने check-points, रेड्डी सर और डी रवि,

हॉस्टल की timing, मुंडे जी और भोला जी,

याद आता है मनोहर, याद आती है टपरी,

maggi, चाय, सिगरेट अपनी सुपरमार्केट वही,

FC का भी चार्म था, इवेनिंग की outings,

छोटी-छोटी बातों पे कभी करी थी fightings,

खूब बने pairs यहाँ, lovers पॉइंट PMC,

पर अपना अड्डा tiger हिल, दारु, रम, बियर, व्हिस्की,

साल मजे में बीत गया और आया फ़िर summer,

ऐश के दो और महीने काट दिए रह के घर,

वापसी जब आए कॉलेज, नए मुर्गे जूनियर,

रात दिन लिए sessions लिए नाम पे इंट्रो के हमने,

रॉब के कुछ और महीने धीरे-धीरे लगे थे काटने ,

प्लेसमेंट लेके हुई पार्टी दारु रम की,

वैसे तो ये होती रहती मगर अलग थी बात इसकी,

.

आ गया अब जाने का दिन, अलविदा ओ VAMNICOM.

जाने कब फ़िर आना होगा, अलविदा ओ VAMNICOM.
___________________________________
PMC:- पिया मिलन चौराहा
FC:- Fergusson College

18 March 2009

हज़ल - तेरी उफ़, हर अदा के वो उजाले याद आते हैं

आप सभी को मेरा नमस्कार,

आज मैं जो हज़ल (हास्य ग़ज़ल) यहाँ लगा रहा हूँ, उसे आप गुरु जी और हठीला जी द्वारा आयोजित किए गए तरही मुशायेरे में पहले ही पढ़ चुके होंगे। अपने आप में अद्भुत मुशयेरा था ये, मैं भी पहली बार मसहिया ग़ज़ल लिखी है। अब आप ही बताएँगे की मैं अपनी इस कोशिश में कितना कामयाब रहा हूँ।


तुम्हारे शहर के गंदे वो नाले याद आते हैं।
उसी से भर के गुब्बारे उछाले याद आते हैं।

पकोडे मुफ्त के खाए थे जो दावत में तुम्हारी,
बड़ी दिक्कत हुई अब तक मसाले याद आते हैं।

भला मैं भूल सकता हूँ तेरे उस खँडहर घर को,
वहां की छिपकली, मकडी के जाले याद आते हैं।

बड़ी मुश्किल से पहचाना तुझे जालिम मैं भूतों में,
वो चेहरे लाल, पीले, नीले, काले याद आते हैं।

कोई भी रंग ना छोड़ा तुझे रंगा सभी से ही,
तेरी उफ़, हर अदा के वो उजाले याद आते हैं।

13 March 2009

ग़ज़ल - देख ले मेरी नज़र से तू मेरे महबूब को

आप सभी को मेरा नमस्कार......................
सर्वप्रथम गुरु जी (पंकज सुबीर जी) को ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए शुभकामनायें।
....................................................
एक ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ, काफिया ज़रा मुश्किल था.................

असलूब :- स्टाइल
मक्तूब:- ख़त
_________________
देख ले मेरी नज़र से तू मेरे महबूब को।
अलहदा उसकी अदा, अलहदा असलूब को।
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हमसे पूछो कैसे काटी करवटों में रात वो,
ले लिया था हाथ में इक आप के मक्तूब को।
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छेड देता है ग़ज़ल बस आपका इक ख्याल ही,
कह रहे दीवानगी है, लोग इस असलूब को.
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है नही तस्वीर कोई पास मेरे आप की,
कर दिया है फ्रेम मैंने आपके मक्तूब को।
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ख्वाब देखू आपके दिन रात तो लगता है यू,
रख दिया हो मोतियों पे ओस भीगी दूब को।
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मखमली एहसास सा होता है मेरी रूह को,
जब "सफ़र" छिप के नज़र है देखती महबूब को।

10 March 2009

होली मुबारक

आप सभी को मेरा नमस्कार..................................

होली की शुभकानाएं।

03 March 2009

ग़ज़ल - खिलखिला कर कैसे हँसतें हैं भला

आप सबको मेरा नमस्कार................
काफी दिनों के बाद एक ग़ज़ल लगा रहा हूँ, कुछ व्यस्तताओं में घिरा हुआ था मगर अब कोई शिकायत का मौका नही दूंगा।
बहरे रमल मुसद्दस महजूफ (२१२२-२१२२-२१२)

अब के जब सावन घुमड़ कर आएगा।
दिल पे बदली याद की बरसाएगा।
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मन से अँधियारा मिटेगा जब, तभी
अर्थ दीवाली का सच हो पायेगा।
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दूसरे की गलतियाँ तो देख ली,
ख़ुद को आइना तू कब दिखलायेगा।
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अपने बारे में किसी से पूछ मत,
कोई तुझको सच नही बतलायेगा।
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धुन में अपनी चल पड़ा पागल सा है,
दर बदर अब मन मुझे भटकायेगा।
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गर्दिशों में छोड़ देंगे सब तुम्हे,
प्यार माँ का संग चलता जाएगा।
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वोट जब मन्दिर के मुद्दे पर मिलें,
कौन मुदा भूख का भुनवायेगा।
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खिलखिला कर कैसे हँसतें हैं भला,
अब तो बच्चा ही कोई सिखलाएगा।
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ये जो हैं आतंकवादी जानवर,
कौन मानवता इन्हे सिखलाएगा।
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तीन रंगों पर लगेगा दाग एक,
भूख से बच्चा जो चूहे खायेगा।
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हम भी सुन कर के चले आए "सफ़र",
आज वो गज़लें हमारी गायेगा.
(गुरु जी के आशीवाद से कृत ग़ज़ल)

14 February 2009

ग़ज़ल - "मुहब्बत करने वाले खूबसूरत लोग होते हैं"

आप सभी को नमस्कार, 

एक महीने बाद कुछ लिखने बैठ रहा हूँ ब्लॉग पे, क्षमा चाहता हूँ. मगर व्यस्तता ही कुछ ऐसी थी और है भी की समय ही नही मिल पा रहा था. गुरु जी भी नाराज़ थे की मैंने कोई पोस्ट नही लगाई, इसी एक महीने में काफी अच्छा अनुभव मिला, जिनमे से एक था अपने आप में अनूठे ऑनलाइन कवि सम्मलेन-मुशायेरे में काव्य पाठ करना और तरही मुशायेरे में मेरे शेर का हासिल-ऐ-मुशायरा शेर बन जाना.

उसी ग़ज़ल से आपको रूबरू करवाता हूँ, जब गुरु जी ने ये मिसरा दिया था "मुहब्बत करने वाले खूबसूरत लोग होते हैं" तो मैं तो कोई मोहब्बत भरी ही ग़ज़ल लिख देता. मगर एक बार गुरु जी से फ़ोन पे बात हुई थी तो गुरु जी ने कहा था की "अंकित, समाज में जो घटित हो रहा है उसे लिखने की कोशिश करो, वही बात दिमाग में थी, इसलिए ख्याल भी उसी दिशा में आए और शेर भी वही सोच के लिखे.

खुशी में साथ हँसते हैं, ग़मों में साथ रोते हैं.
मुहब्बत करने वाले खूबसूरत लोग होते हैं.


नशे में चूर गाड़ी ने किया यमराज से सौदा,
नही मालूम दौलत को सड़क पे लोग सोते हैं.


कभी हर्षद, कभी केतन, कभी सत्यम करे धोखा,
मगर इन चंद के कारन सभी विश्वास खोते हैं.


महज़ वो कौम को बदनाम करते हैं ज़माने में,
जो बस जेहाद के जरिये ज़हर के बीज बोते हैं.


ये सारा खेल कुर्सी का समझ में आएगा सब के,
ये नेता झूठ हँसते हैं, ये नेता झूठ रोते हैं.


हमारे शहर घर पे बढ़ गए आतंक के हमले,
ये गुस्सा भी दिलाते हैं, ये पलकें भी भिगोते हैं.

आखिरी में आप सभी का शुक्रिया जिनका प्यार और आशीर्वाद मुझे मिलता रहा है और आशा करता हूँ की आगे भी मिलता रहेगा. जल्द ही एक नई ग़ज़ल के साथ हाज़िर होता हूँ..................

10 January 2009

ग़ज़ल - .....मैं क्या कहूं

मैंने अपनी पिछली रचना में भारी गलती की थी, एक मायने में अगर वो गलती नही करता तो इतनी जल्दी गुरु जी से बात करने का सौभाग्य नही मिल पाता। उसी की हुई गलती को सुधारने की कोशिश करने की मैंने कोशिश की मगर वो हो ना सका और एक नई ग़ज़ल बनी। मगर इस ग़ज़ल का एक शेर उस पुरानी ग़ज़ल का ही ख़याल है। इस ग़ज़ल को सही रूप में लाना गुरु जी के बिना सम्भव नही था.
बहर २२१२-२२१२-२२१२
मुस्‍तफएलुन मुस्‍तफएलुन मुस्‍तफएलुन


मिल के नज़र झुक जाए जब मैं क्या कहूं.
मुश्किल बड़े हालात अब मैं क्या कहूं.

मेरी नज़र पढ़ ना सकी तू दिलरुबा,
खामोश रहने का सबब मैं क्या कहूं.

सागर मुहब्बत का कहीं कम ना पड़े,
दिल है मेरा सहरा तलब मैं क्या कहूं.

तुम हमसफ़र बन के चलो उस मोड़ तक,
इक याद बन जाए गज़ब मैं क्या कहूं.

इस इश्क ने जादू न जाने क्या किया,
कटती नज़र में रात अब मैं क्या कहूं।
.
[गुरु जी (पंकज सुबीर जी) को समर्पित, जिनके बिना इसका बनना सम्भव नही था]

03 January 2009

मेरी गलती..........

आप सभी को मेरा नमस्कार,
कुछ लोगों को ये रचना बहुत पसंद, मैं इसे ग़ज़ल कहने की गलती कर रहा था मगर मेरे कभी किए हुए अच्छे कर्मो का ही ये फल होगा की मैं अपनी गलती को पहचान पाया तो सिर्फ़ और सिर्फ़ गुरु जी के कारन। कायदे से मुझे इसे यहाँ से तुंरत हटा लेना चाहिए मगर मैं चाह रहा हूँ की ये मुझे मेरी गलतियों का एहसास कराये और मुझे आगे अच्छा करने की प्रेरणा दे।
जिस दिन ये ग़ज़ल मैंने पोस्ट करी सौभाग्य से उसी दिन गुरु जी ने मुझे, उनसे बात करने को कहा और उनसे बात करके बहुत कुछ सीखने को मिला।
गलतियाँ:-
१] इस रचना का पहला ही मिसरा किसी और की रचना से मेल खा रहा है।
२] कुछ शेरो में मिसरा-ऐ-उला, मिसरा-ऐ-सानी को अच्छी तरह से नही जोड़ रहा है।
३] मैंने इसमे रदीफ़ "मत पूछो" लिया है जिसे मैं सही तरह से निभा नही पाया सिर्फ़ खानापूर्ति की कोशिश की है।
४] इस रचना का तीसरा शेर का एक मिसरा "दीदार तेरा दिल की कोई धड़कन हो" वजन के हिसाब से तो सही है मगर कहने में अटक रहा है।
५] मैं गुरु जी का आभार व्यक्त करना चाहता हूँ, की उन्होंने मुझे मेरी गलतियों से अवगत कराया और साथ ही साथ एक दिशा भी दी। मैंने अपनी गलती को सुधारने की कोशिश अपनी अगली रचना में की है जो इस को सुधारने के कारन ही बन पाई है.