21 October 2008

मुझसे मिरा हक छीनो, ये हक मैंने नही दिया तुमको.

1)
नटखट बचपन मेरा है, उसको नटखट ही रहने दो।
पागल आवारा दिल को मस्ती अल्हड में बहने दो।
मैं बूढा हूँ तो क्या जो सच है मुझको वो कहने दो।
कुछ और ही सोचा है मैंने, मुझे भरोसा है उस पर।
मैंने बुनी अपनी दुनिया, मुझे भरोसा है उस पर।
तुम कौन हो मुझको बतलाते, ग़लत सही की परिभाषा,
मुझसे मिरा हक छीनो, ये हक मैंने नही दिया तुमको।
२)
मैं जनता हूँ बेचारी जो चुनती सरकारें सत्ता।
मैं भाषा हूँ तुम लोगो की, बोले मुझको हर बच्चा।
मैं सच हूँ ये सब जाने पर कौन यहाँ सच की सुनता।
कुछ मैंने तुमसे कहा नही, जब तुमने करी अपने मन की।
सब कुछ तो मैंने सहा सभी, जब तुमने करी अपने मन की।
तुम कौन हो मुझको बतलाते, ग़लत सही की परिभाषा,
मुझसे मिरा हक छीनो, ये हक मैंने नही दिया तुमको।

18 October 2008

ग़ज़ल - जो है ग़लत उसका इंक़लाब करता है..

जो है ग़लत उसका इंक़लाब करता है।
तुम ही बताओ वो क्या ख़राब करता है।
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एक बात छोटी सी तुम दिमाग में रखना,
मुश्किल में ही इंसा लाजवाब करता है।
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करते रहो नेकी और बढ़ चलो आगे,
कोई भला क्या गिन के सबाब करता है।
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मुझसे निगाहें मिल के निगाह का झुकना,
तेरी अदाओं को कामयाब करता है।
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कोई मुहब्बत में ख़त कहीं जलाता है,
कोई कहीं उनको इक किताब करता है।

15 October 2008

ग़ज़ल - रात भर ख़त तिरा इक खुला रह गया

दो दिन से बुखार के कारण बिस्तर पर पड़ा हुआ था, और उसी का परिणाम है कुछ ग़ज़लें। उनमे से जो ग़ज़ल सबसे पहली बनी थी उसे यहाँ पे पेश कर रहा हूँ, गुरु जी( पंकज सुबीर जी) की भी बात दिमाग में थी.....

"प्रिय अंकित तुम्‍हारी ग़ज़लें देख रहा हूं और ये पा रहा हूं कि तुम कठिन काफिया और रदीफ के चक्‍कर में उलझे हो और उसी के कारण भर्ती के काफिये और रदीफ लेने पड़ रहे हैं । मैनं पिछली कक्षाओं में बताया है कि ज़रूरी नहीं है कि कठिन काफिया और रदीफ ही लिया जाये । सरल काफियों पर भी बेहतरीन ग़ज़लें लिखी गईं हैं । ग़ालिब की मशहूर ग़ज़लें बहुत सरल काफियों पर हैं । तुम्‍हारी पिछली दोनों ग़ज़लें कठिन काफियों और कठिन रदीफों का शिकार हैं । इससे बाहर निकलो और आम बोलचाल की भाषा में लिखो जैसे ग़ालिब कहते हैं कि हरेक बात पे कहते हो तुम के तू क्‍या है तुम्‍हीं कहो के ये अंदाज़े ग़ुफ्तगू क्‍या है । सरल लिखो पर गहरा लिखो । कठिन लिखोगे तो उथला हो जायेगा ।"

बहरे मुतदारिक मुसमन सालिम
२१२-२१२-२१२-२१२ 

रात भर ख़त तिरा इक खुला रह गया।
मेरे कमरे में जलता दिया रह गया।
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भूख दौलत की बढती रही दिनबदिन,
आदमी पीछे ही भागता रह गया।
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छीन के ले लिया मुझसे दुनिया ने सब,
इक तिरी याद का आसरा रह गया।

11 October 2008

काव्य संकलन - "अँधेरी रात का सूरज" देखो उग गया.....

मैं नीरज जी कुछ पंक्तियाँ उधार लेना चाहूँगा,
"मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता...लेकिन क्या हम उन्हें भली भांति जानते हैं जिनसे हमारा व्यक्तिगत परिचय होता है?"

मैं अपनी हार्दिक शुभकामनाएं राकेश खंडेलवाल जी को दे रहा हूँ, उनके काव्य संकलन "अँधेरी रात का सूरज" के लिए जो अपने आप में अदभुत है और एक इतिहास का निर्माण कर रहा है, केवल रचनाओं के रूप में ही नहीं वरन विमोचन के रूप में भी।

मैं उनको उन्हीं के एक गीत की २ पंक्तियों से बधाई देना चाहता हूँ, जो अपने आप में बहुत कुछ समेटे हुए है, अगर कहा जाए तो "गागर में सागर"।

मीत अगर तुम साथ निभाओ तो फिर गीत एक दो क्या है,
मैं सावन बन कर गीतों की अविरल रिमझिम बरसाऊंगा।

08 October 2008

ग़ज़ल - चंदा मामा कांच की कटोरी कहाँ हैं?

चंदा मामा कांच की कटोरी कहाँ हैं?
रहती थी जो हर जुबां पे लोरी कहाँ हैं?

झूठी लगती हैं अनाज सड़ने की बातें,
लाला सच को बोल दो वो बोरी कहाँ हैं?

रहते हैं अब मॉम डैड सब की जुबां पे,
अब वो बाबा और मैय्या मोरी कहाँ हैं?

उलझे इतने हैं सभी किताबों में आजकल,
उस बचपने नादान की वो चोरी कहाँ हैं?

रह के तेरे साथ ग़म खुशी को जिया है,
तुमने छोड़ी हमने भी बटोरी कहाँ हैं?

05 October 2008

ग़ज़ल - तू यकीन मेरा है, मैं यकीन तेरा हूँ

भूख प्यास जिंदा है सब के ही निवालों में।
पत्तलों में हो या सोने के राज थालों में।


तू यकीन मेरा है, मैं यकीन तेरा हूँ,
हम उलझ गए दोनों बेवजह सवालों में।


दीप वो लड़े शब से जान डाल जोखिम में,
भूल सब गए हम वो सुबह के उजालों में।


दौड़ता है रग-रग में खू नया उमंगों का,
तुम भरो मसाला ये सत्य की मशालों में।

02 October 2008

बापू के लिए ...............

वक्त की सिलवट में रहे माज़ी की खुशबू।
आज भी ताज़ा सी है, आज़ादी की खुशबू।
महकता है हिंदोस्ता, जब महकती है,
अनगिनत वीरों और एक गाँधी की खुशबू।