25 March 2015

ग़ज़ल - ये इक सिगरेट नहीं बुझती कभी से

न जाने कितने ही लम्हें ऐसे होते हैं जो राख हो कर भी अपनी आँच सम्हाले रखते हैं ताकि कारवान-ए-ज़िन्दगी को सर्द वक़्त में गर्माहट दे सकें, और ज़िन्दगी खुशरंग बनी रहे। 


कहूँ क्या शोख़ कमसिन सी नदी से
तेरे अंदाज़ मिलते हैं किसी से

हमारे होंठ कुछ हैरान से हैं
तुम्हारे होंठ की इस पेशगी से

तुम्हें मिल जायेगा क्या ऐ निगाहों
हमारे दिल की पल-पल मुखबिरी से

हुई हैं राख कितनीं रात फिर भी
ये इक सिगरेट नहीं बुझती कभी से

झरोका बात का जल्दी से खोलो
ये रिश्ता मर न जाये ख़ामुशी से

नये रिश्ते की क्या कुछ शक़्ल होगी
अगर आगे बढ़े हम दोस्ती से

02 March 2015

ग़ज़ल - ऐ काश कि पढ़ सकता तू बादल की शिकन भी

ये अचानक से मौसम के करवट बदलने का ही असर जानिये कि फरवरी ने तल्ख़ और गर्म हवाओं की केंचुली उतार फेंकी है। उदासियाँ बूँद-बूँद कर बह रही हैं, स्याह बादल जी को ज़्यादा भा रहे हैं और ख़यालों से सौंधी सी ख़ुश्बू उड़ रही है .... 


ऐ काश कि पढ़ सकता तू बादल की शिकन भी 
बूँदों में था लिपटा हुआ बारिश का बदन भी 

उसने यूँ नज़र भर के है देखा मेरी जानिब 
आँखों में चली आई है हाथों की छुहन भी 

ऐ सोच मेरी सोच से आगे तू निकल जा 
उन सा ही सँवर जाये ये अंदाज़-ए-कहन भी 

बातों में कभी आई थी मेहमान के जैसे 
अफ़सोस के घर कर गई दिल में ये जलन भी 

आहिस्ता से पलकों ने मेरी जाने कहा क्या
अब नींद में ही टूटना चाहे है थकन भी

ढ़लती ही नहीं है ये मुई रात में जा कर 
चुपचाप किसी शाम सी अटकी है घुटन भी 

आग़ाज़-ए-मुहब्बत है 'सफ़र' मान के चलिये 
इस राह में आयेंगे बयाबाँ भी चमन भी