30 November 2015

ग़ज़ल - हर इक साँचे में ढल जाये ज़रा ऐसे पिघल प्यारे


हर इक साँचे में ढल जाये ज़रा ऐसे पिघल प्यारे
तू अपनी सोच के पिंजरे से बाहर तो निकल प्यारे 

झुकायेगा नहीं अब पेड़ अपनी शाख पहले सा 
तेरी चाहत अगर ज़िद्दी है तो तू ही उछल प्यारे 

पस-ए-हालात में ख़ामोशियाँ भी चीख उट्ठी हैं 
रगों में गर लहू बहता है तेरे तो उबल प्यारे 

जहाँ फ़रियाद गुम होने लगे आवाज़ में अपनी 
वहाँ पर टूटने ही चाहिये सारे महल प्यारे 

निवाला आज भी मुश्किल से मिलता है यहाँ लेकिन 
फले-फूले हैं हाथी, साइकिल, पंजा, कमल प्यारे 

है अहल-ए-शहर का लहजा न जाने तल्ख़ क्यूँ इतना 
सुनाना चाहता हूँ मैं यहाँ बस इक ग़ज़ल प्यारे 

13 September 2015

ग़ज़ल - ख़ुश्क निगाहें, बंजर दिल, रेतीले ख़्वाब


वक़्त तेरे जब आने का हो जाता है
दीवाना… और दीवाना हो जाता है

आँखें ही फिर समझौता करवाती हैं
नींद से जब मेरा झगड़ा हो जाता है

ख़ुश्क निगाहें, बंजर दिल, रेतीले ख़्वाब
देख मुहब्बत में क्या-क्या हो जाता है

एक ख़याल ख़यालों में पलते-पलते
रफ़्ता-रफ़्ता अफ़साना हो जाता है

चंद बगूले यादों के उड़ते हैं और
धीरे-धीरे सब सहरा हो जाता है

26 May 2015

ग़ज़ल - युग बदलती सोच की सौगात के

जब हम बार-बार ये सोचते हैं कि किसी ख़ास शख़्स या शै के बारे में बिलकुल भी न सोचें, तो हम ख़ुद को उन्हीं गलियों की तरफ मोड़ते हैं जहाँ हम जाना नहीं चाहते, मगर चाहते हैं कि जायें। अपने को बेहतर तरीके से जानने के लिए, ये 'न चाहना' का 'चाहना' ज़रूरी भटकाव है, शायद !


युग बदलती सोच की सौगात के 
रंग बदले-बदले हैं देहात के 

ख़्वाहिशें मेरी मुसलसल यूँ बढ़ीं 
हो गईं बाहर मेरी औक़ात के 

अलविदा जब दिन ने सूरज को कहा 
शाम ने परदे गिराये रात के 

ख़ामुशी कसने लगी है तंज अब 
रास्ते कुछ तो निकालो बात के 

कुछ दिनों तक मन बहकने दो ज़रा 
ख़्वाहिशों पर रंग हैं जज़्बात के 

खेलने के बस तरीके बदले हैं 
खेल तो वैसे ही हैं शह-मात के 

गोधरा पर ट्रेन जब ठहरी ज़रा 
घाव फिर ताज़ा हुये गुजरात के 

मुश्किलें बेहतर बतायेंगी 'सफ़र'
लोग कितना साथ देंगे साथ के 

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Painting (Checkmate) by Andrea Banjac 

21 April 2015

ग़ज़ल - ज़रा आवाज़ दे उसको बुला तो

न जाने कितनी आवाज़ें हमारे साथ हमारे कदमों से लिपट कर ताउम्र बेसाख़्ता चलती रहती हैं। उनमें से कई तो गुज़रते वक़्त के साथ दम तोड़ देती हैं तो कुछ ताउम्र पाँव में घुँघरू बन कर छन-छन बजती रहती हैं। इन्हीं आवाज़ों में कहीं, हमसे बहुत पीछे छूटा हमारा मुहल्ला है, तो कहीं बेलौस यारियाँ हैं और उन्हीं में ही कहीं एक अनकहे प्यार का टुकड़ा भी है …


ज़रा आवाज़ दे उसको बुला तो
न लौटे, फिर वो शायद, अब गया तो

तेरी आँखों का साहिल है कहाँ तक !
मैं उस से पूछता ये.… पूछता तो

भरा है खुश्बुओं से तेरा कमरा
पुराने ख़त सलीक़े छुपा तो

मैं ख़ुद को लाख भटकाऊँ भी तो क्या !
तुम्हीं तक जायेगा हर रास्ता तो

मेरी ख़ामोशियाँ पहचान जाता
मुझे अच्छे से गर वो जानता तो

है जिनकी सरपरस्ती हम पे काबिज़
बुतों में ढल गये वो देवता तो

बिना सोचे ही तुम ठुकरा भी दोगे
तुम्हारा मशविरा तुम को मिला तो

भरोसे की ही बस सूरत बची फिर
दिया अपना जो उसने वास्ता तो

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{Painting by Andrea Banjac}

25 March 2015

ग़ज़ल - ये इक सिगरेट नहीं बुझती कभी से

न जाने कितने ही लम्हें ऐसे होते हैं जो राख हो कर भी अपनी आँच सम्हाले रखते हैं ताकि कारवान-ए-ज़िन्दगी को सर्द वक़्त में गर्माहट दे सकें, और ज़िन्दगी खुशरंग बनी रहे। 


कहूँ क्या शोख़ कमसिन सी नदी से
तेरे अंदाज़ मिलते हैं किसी से

हमारे होंठ कुछ हैरान से हैं
तुम्हारे होंठ की इस पेशगी से

तुम्हें मिल जायेगा क्या ऐ निगाहों
हमारे दिल की पल-पल मुखबिरी से

हुई हैं राख कितनीं रात फिर भी
ये इक सिगरेट नहीं बुझती कभी से

झरोका बात का जल्दी से खोलो
ये रिश्ता मर न जाये ख़ामुशी से

नये रिश्ते की क्या कुछ शक़्ल होगी
अगर आगे बढ़े हम दोस्ती से

02 March 2015

ग़ज़ल - ऐ काश कि पढ़ सकता तू बादल की शिकन भी

ये अचानक से मौसम के करवट बदलने का ही असर जानिये कि फरवरी ने तल्ख़ और गर्म हवाओं की केंचुली उतार फेंकी है। उदासियाँ बूँद-बूँद कर बह रही हैं, स्याह बादल जी को ज़्यादा भा रहे हैं और ख़यालों से सौंधी सी ख़ुश्बू उड़ रही है .... 


ऐ काश कि पढ़ सकता तू बादल की शिकन भी 
बूँदों में था लिपटा हुआ बारिश का बदन भी 

उसने यूँ नज़र भर के है देखा मेरी जानिब 
आँखों में चली आई है हाथों की छुहन भी 

ऐ सोच मेरी सोच से आगे तू निकल जा 
उन सा ही सँवर जाये ये अंदाज़-ए-कहन भी 

बातों में कभी आई थी मेहमान के जैसे 
अफ़सोस के घर कर गई दिल में ये जलन भी 

आहिस्ता से पलकों ने मेरी जाने कहा क्या
अब नींद में ही टूटना चाहे है थकन भी

ढ़लती ही नहीं है ये मुई रात में जा कर 
चुपचाप किसी शाम सी अटकी है घुटन भी 

आग़ाज़-ए-मुहब्बत है 'सफ़र' मान के चलिये 
इस राह में आयेंगे बयाबाँ भी चमन भी 

11 February 2015

ग़ज़ल - कभी जो दूधिया सी शब गुरूर में नहाये है

कुल जमा 28 दिनों की फरवरी नये साल के कैनवास पर रंगे वादों को गहराती है। दरअसल जनवरी महीना तो नये की ख़ुमारी और पिछले साल की यादों के हैंगओवर में ही निकल जाता है। प्रेम में पगी फरवरी ज़िन्दगी और इश्क़ के बीच राब्ता बनाये रखने की बुनियाद है।


कभी जो दूधिया सी शब गुरूर में नहाये है
वो… चाँद को उधेड़कर अमावसें बनाये है

जो लम्स तेरे हाथ का नसीब हो गया इसे
ये चोट फिर तो जिस्म से किसी तरह न जाये है

फ़लक़ के जिस्म पर गढ़ा था एक चाँद तुम ने जो
वो सुबह की तलाश में हर एक शब जलाये है

लिबास-ए-मुफ़लिसी भी गो विरासतों से कम नहीं
बड़ों के जिस्म पर भी था हमें भी अब सजाये है

वो बचपना जो घुल गया है साथ बढ़ती उम्र के
कभी-कभी वो बेसबब सी हरक़तों में आये है

ये जिस्म जिस से है बना उसी में जा के मिलना है
फ़िज़ूल रोना पीटना, फ़िज़ूल हाय-हाय है

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शब : रात
लम्स : स्पर्श
फ़लक़ : आसमान
लिबास-ए-मुफ़लिसी : गरीबी का वस्त्र 

02 February 2015

ग़ज़ल - मोगरे के फूल पर थी चाँदनी सोई हुई

इस साल इस ब्लॉग का एकाउंट आख़िरकार फरवरी में जा कर खुल ही गया। गये साल के गुल्लक में एक ही सिक्का खनखना रहा है, गोया ये उसका शोर ही था जो बेचैन किये हुये था। लीजिये जनाब, एक नई नवेली ग़ज़ल पेश-ए-ख़िदमत है, ज़मीन अता हुई है "सुबीर संवाद सेवा" पर आयोजित तरही मुशायरे से। उसी मुशायरे से पेश है ये ग़ज़ल…



नीम करवट में पड़ी है इक हँसी, सोई हुई
देखती है ख़्वाब शायद ये परी सोई हुई

है बहुत मासूम सी जब तक है गहरी नींद में
परबतों की गोद में ये इक नदी सोई हुई

रात की चादर हटा जब आँख खोली सुबह ने
मोगरे के फूल पर थी चाँदनी सोई हुई

कोई आहट से खंडर की नींद जब है टूटती
यक-ब-यक है जाग उठती इक सदी सोई हुई

अपनी बाहों में लिये है आसमाँ और धूप को
इक सुनहरे ख़्वाब में है ये कली सोई हुई

एक गहरी साँस में निगलेगा पूरी ही ज़मीन
प्यास शायद है समंदर की अभी सोई हुई

ख़्वाब में इक ख़्वाब बुनते जा रही है आदतन
नींद के इस काँच घर में ज़िन्दगी सोई हुई