16 November 2011

ग़ज़ल - काढ देंगे सहर उजालों की

पिछले महीने दीपावली में सुबीर संवाद सेवा पे आयोजित तरही मुशायरे के लिए ये ग़ज़ल कही थी। कुछ नए शेर जुड़े हैं और कुछ पुराने शेरों में थोड़ी सी और छेड़खानी कर के, आखिरकार ये ग़ज़ल आप से गुफ़्तगू करने के लिए यहाँ है।


(एक खूबसूरत सुबह गुप्त-काशी, उत्तराखंड की)

क़र्ज़ रातों का तार के हर सू
एक सूरज नया उगे हर सू

काढ देंगे सहर उजालों की
बाँध कर रात के सिरे हर सू

तेरे हाथों का लम्स पाते ही
एक सिहरन जगे, जगे हर सू

रात टूटी हज़ार लम्हों में
ख़ाब सारे बिखेर के हर सू

मेरे स्वेटर की इस बुनावट में
प्यार के धागे हैं लगे हर सू

चाँद को गौर से जो देखा तो
जुगनुओं के लिबास थे हर सू

खेल दुनिया रचे है रिश्तों के
जिंदगानी के वास्ते हर सू

चोट खाया हुआ मुसाफिर हूँ
साथ चलते हैं मशविरे हर सू

ख़त्म आखिर सवाल होंगे क्या?
मौत के इक जवाब से हर सू