26 March 2009

अलविदा ओ VAMNICOM.................... ३१ मार्च २००९

आप सभी को मेरा नमस्कार,
आज कहने को बहुत कुछ है मगर ये तय नही कर पा रहा हूँ, कैसे कहूं और क्या-क्या कहूं।

मैं पंतनगर उत्तराखंड से दो साल पहले "गोविन्द बल्लभ पन्त कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय" से कृषि स्नातक करके VAMNICOM, पुणे MBA करने आया और अब जाने का दिन आ गया है। इन दो सालों में बहुत कुछ पाया है मैंने। इस ब्लॉग की शुरुआत हुई (२८ जनवरी, २००८) को और फ़िर तो आप सब का प्यार मिलता रहा।

लिखता मैं पंतनगर से ही था मगर ग़ज़ल की बारीकियां नही मालूम थी, उन बारीकियों को मुझे सिखाने के लिए उस इश्वर ने मेरा परिचय एक फ़रिश्ते (गुरु जी, पंकज सुबीर जी) से करवाया।

असल में इस मिलन का अपरोक्ष रूप से शुक्रिया जाता है समीर लाल जी को, अब पूछेंगे वो कैसे?
वो ऐसे की, मैंने ब्लॉग पे अपनी बिन बहर की गज़लें लिखनी शुरू कर दी थी ब्लॉग्गिंग के जूनून में, एक दिन समीर लाल जी अपनी उड़न तश्तरी से मेरे ब्लॉग पे उतरे और एक टिपण्णी छोड़ के चले गए, अपने ब्लॉग पे पहली टिपण्णी पाकर उस व्यक्ति के बारे में जानने की इच्छा हुई और उनके ब्लॉग को पढ़ डाला। उसमे समीर जी ने ग़ज़ल की क्लास्सेस का ज़िक्र किया था और पता था पंकज सुबीर(गुरु जी)। बस आव देखा न ताव पूरे ब्लॉग को १ दिन में पूरा पढ़ डाला उसमे लगी टिप्पणियों समेट।
इन दो सालों में काफी लोगों से जान पहचान हुई इस ब्लॉग के ज़रिये. और मेरे आधे-अधूरे ज्ञान को गुरु का साथ मिला. इन दो सालों के बारे में एक नज़्म लिखी है जो कॉलेज और हॉस्टल की मस्ती से लबालब जीवन के बारे में है. ये नज़्म मैं अपने दोस्तों को समर्पित करता हूँ...........


सोचा ना था इतनी जल्दी वक्त जाएगा गुज़र।

लम्हों में बदल जाएगा दो साल का ये एक सफ़र।

जब कभी मैं सोचता हूँ दिन वो कॉलेज के हसी,

MBA का excitement और पुणे की मस्ती,

आया था मैं दूर घर से लेके कुछ सपने यहाँ,

अजनबी जो लगते थे बन गए अपने यहाँ,

फ़िर हुआ क्लास्सेस का चक्कर बातें वही घिसी पिटी,

मगर थी स्लीपिंग अपनी हॉबी सोने में सब वो कटी,

कुछ थे अपने check-points, रेड्डी सर और डी रवि,

हॉस्टल की timing, मुंडे जी और भोला जी,

याद आता है मनोहर, याद आती है टपरी,

maggi, चाय, सिगरेट अपनी सुपरमार्केट वही,

FC का भी चार्म था, इवेनिंग की outings,

छोटी-छोटी बातों पे कभी करी थी fightings,

खूब बने pairs यहाँ, lovers पॉइंट PMC,

पर अपना अड्डा tiger हिल, दारु, रम, बियर, व्हिस्की,

साल मजे में बीत गया और आया फ़िर summer,

ऐश के दो और महीने काट दिए रह के घर,

वापसी जब आए कॉलेज, नए मुर्गे जूनियर,

रात दिन लिए sessions लिए नाम पे इंट्रो के हमने,

रॉब के कुछ और महीने धीरे-धीरे लगे थे काटने ,

प्लेसमेंट लेके हुई पार्टी दारु रम की,

वैसे तो ये होती रहती मगर अलग थी बात इसकी,

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आ गया अब जाने का दिन, अलविदा ओ VAMNICOM.

जाने कब फ़िर आना होगा, अलविदा ओ VAMNICOM.
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PMC:- पिया मिलन चौराहा
FC:- Fergusson College

18 March 2009

हज़ल - तेरी उफ़, हर अदा के वो उजाले याद आते हैं

आप सभी को मेरा नमस्कार,

आज मैं जो हज़ल (हास्य ग़ज़ल) यहाँ लगा रहा हूँ, उसे आप गुरु जी और हठीला जी द्वारा आयोजित किए गए तरही मुशायेरे में पहले ही पढ़ चुके होंगे। अपने आप में अद्भुत मुशयेरा था ये, मैं भी पहली बार मसहिया ग़ज़ल लिखी है। अब आप ही बताएँगे की मैं अपनी इस कोशिश में कितना कामयाब रहा हूँ।


तुम्हारे शहर के गंदे वो नाले याद आते हैं।
उसी से भर के गुब्बारे उछाले याद आते हैं।

पकोडे मुफ्त के खाए थे जो दावत में तुम्हारी,
बड़ी दिक्कत हुई अब तक मसाले याद आते हैं।

भला मैं भूल सकता हूँ तेरे उस खँडहर घर को,
वहां की छिपकली, मकडी के जाले याद आते हैं।

बड़ी मुश्किल से पहचाना तुझे जालिम मैं भूतों में,
वो चेहरे लाल, पीले, नीले, काले याद आते हैं।

कोई भी रंग ना छोड़ा तुझे रंगा सभी से ही,
तेरी उफ़, हर अदा के वो उजाले याद आते हैं।

13 March 2009

ग़ज़ल - देख ले मेरी नज़र से तू मेरे महबूब को

आप सभी को मेरा नमस्कार......................
सर्वप्रथम गुरु जी (पंकज सुबीर जी) को ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए शुभकामनायें।
....................................................
एक ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ, काफिया ज़रा मुश्किल था.................

असलूब :- स्टाइल
मक्तूब:- ख़त
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देख ले मेरी नज़र से तू मेरे महबूब को।
अलहदा उसकी अदा, अलहदा असलूब को।
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हमसे पूछो कैसे काटी करवटों में रात वो,
ले लिया था हाथ में इक आप के मक्तूब को।
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छेड देता है ग़ज़ल बस आपका इक ख्याल ही,
कह रहे दीवानगी है, लोग इस असलूब को.
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है नही तस्वीर कोई पास मेरे आप की,
कर दिया है फ्रेम मैंने आपके मक्तूब को।
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ख्वाब देखू आपके दिन रात तो लगता है यू,
रख दिया हो मोतियों पे ओस भीगी दूब को।
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मखमली एहसास सा होता है मेरी रूह को,
जब "सफ़र" छिप के नज़र है देखती महबूब को।

10 March 2009

होली मुबारक

आप सभी को मेरा नमस्कार..................................

होली की शुभकानाएं।

03 March 2009

ग़ज़ल - खिलखिला कर कैसे हँसतें हैं भला

आप सबको मेरा नमस्कार................
काफी दिनों के बाद एक ग़ज़ल लगा रहा हूँ, कुछ व्यस्तताओं में घिरा हुआ था मगर अब कोई शिकायत का मौका नही दूंगा।
बहरे रमल मुसद्दस महजूफ (२१२२-२१२२-२१२)

अब के जब सावन घुमड़ कर आएगा।
दिल पे बदली याद की बरसाएगा।
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मन से अँधियारा मिटेगा जब, तभी
अर्थ दीवाली का सच हो पायेगा।
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दूसरे की गलतियाँ तो देख ली,
ख़ुद को आइना तू कब दिखलायेगा।
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अपने बारे में किसी से पूछ मत,
कोई तुझको सच नही बतलायेगा।
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धुन में अपनी चल पड़ा पागल सा है,
दर बदर अब मन मुझे भटकायेगा।
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गर्दिशों में छोड़ देंगे सब तुम्हे,
प्यार माँ का संग चलता जाएगा।
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वोट जब मन्दिर के मुद्दे पर मिलें,
कौन मुदा भूख का भुनवायेगा।
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खिलखिला कर कैसे हँसतें हैं भला,
अब तो बच्चा ही कोई सिखलाएगा।
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ये जो हैं आतंकवादी जानवर,
कौन मानवता इन्हे सिखलाएगा।
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तीन रंगों पर लगेगा दाग एक,
भूख से बच्चा जो चूहे खायेगा।
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हम भी सुन कर के चले आए "सफ़र",
आज वो गज़लें हमारी गायेगा.
(गुरु जी के आशीवाद से कृत ग़ज़ल)