26 December 2008

ग़ज़ल - उसकी रीडिंग लिस्ट में भी / अव्वल 'एरिक सीगल' है

आजकल ज़्यादा वक़्त निकलना मुमकिन नहीं हो पा रहा है, एम.बी.ए के आखिरी दौर में हूँ (मतलब प्लेसमेंट्स)। एक कोशिश की है, कुछ ख़याल ख्याल आ गए थे और फ़िर कलम चल पड़ी ख़याल बुनने के सफ़र पर  .......................

दरअसल मेरी कोई ग़ज़ल शायद ही कभी मुकम्मल तौर पे लिखी गई होगी, हर एक ग़ज़ल में नये शेर वक़्त के साथ-साथ कड़ी दर कड़ी जुड़ते चलते रहते हैं।


ज़िद में रखता बादल है
बचपन कितना पागल है

कसमों वादों को सुनता,
कॉलेज में इक पीपल है

जो उतरेगा डूबेगा
ख़्वाहिश ऐसी दलदल है

उसकी रीडिंग लिस्ट में भी
अव्वल 'एरिक सीगल' है

मैं रोया तो चुप करने
आया माँ का आँचल है

दिन है छोटा सा किस्सा
शब इक मोटा नॉवल है

झाँक रही है धूप यहाँ
कमरा क्या है! जंगल है

08 December 2008

ग़ज़ल - चाँद खिलौना तकते थे

चाँद खिलौना तकते थे।
जब यारों हम बच्चे थे।

रिश्तों में इक बंदिश है,
हम आवारा अच्छे थे।

डांठ नही माँ की भूले,
जब बारिश में भीगे थे।

कुछ नए शेर जोड़ रहा हूँ....................................

पास अभी भी हैं मेरे,
तुने ख़त जो लिक्खे थे।

ठोकर खा के जाना है,
बात बड़े सच कहते थे।

यार झलक को हम तेरी,
गलियों-गलियों फिरते थे।

उसने ही ठुकराया है,
हम उम्मीद में जिनसे थे।

28 November 2008

अमनों-सुकू का होगा इम्तेहान कब तलक?

"इस अमनों-सुकू का होगा इम्तेहान कब तलक?
ये जेहाद लेगा मासूमों की जान कब तलक?"

बहुत से सवाल अब भी अपने जवाब की तलाश में हैं?
क्या हम कुछ सीख पाएंगे या फ़िर सब भूल कर अगले सबक (बम विस्फोट) का इंतज़ार करेंगे और हर बार की तरह शहीदों के बलिदान को टीका टिप्पणियों तक सिमटा देंगे?

27 November 2008

हड़ताल-एक मौज

ये कविता मैंने अपने स्कूल के दिनों में लिखी थी और ये आज भी मुझे पसंद है।

"हड़ताल-एक मौज"
जब काम करने का मन ना कर रहा हो,
काम भी बोझ सा लग रहा हो
तो काम से छुट्टी का सबसे अच्छा बहाना है
ऑफिस में कर दो हड़ताल
कमरों में लगा दो ताला
किसी एक या दो के गले में पहना दो माला
ज़ोर-ज़ोर से नारे लगाओ हम भूख हड़ताल कर रहे हैं
परदे के पीछे सब आराम से पेट भर रहे हैं
अपनी गाड़ी ना हो तो गाड़ियों में आग लगा दो
सड़क पे झूमने का मन करे तो चक्का जाम लगा दो
कितना सुख है इस हड़ताल में
सरकार भी नाममात्र को जुटती है जाँच पड़ताल में
हफ्ते भर के मौज मनाओ
फ़िर एक यूनियन बनाओ
कुछ सरकार की मानो कुछ अपनी मनवाओ
ऐसा सुख कहीं मिलता नही जितना है हड़ताल में
सबकी दुआ है ये आ जाए दो चार बार साल में।

25 November 2008

ग़ज़ल - ये खंडहर हैं किसी की यादें.........

वो सज संवर के निकल रहे हैं।
हवा फिज़ा सब बदल रहे है।

तिरी नज़र, होठ, ज़ुल्फ़, चिलमन,
मिरी ही कोई ग़ज़ल रहे हैं।

कसम वो तुमको न सोचने की,
किए जो वादे पिघल रहे हैं।

है प्यार यारों नया ही हरदम,
कदम संभल कर फिसल रहे हैं।

ये खंडहर हैं किसी की यादें,
कभी ये जगमग महल रहे हैं।

24 November 2008

ग़ज़ल - रात लपेट के सोया हूँ मैं

आँखे जब भी बोलें जादू
बातें शोख, अदा इक खुशबू

तेरी आँखों का ये जादू 
काबू में है दिल बेकाबू 

रात लपेट के सोया हूँ मैं 
चाँद को रख कर अपने बाज़ू 

एक ख़याल तुम्हारा पागल 
लफ़्ज़ों से खेले हू-तू-तू 

जब लम्हों की जेब टटोली 
तुम ही निकले बन कर आँसू 

याद तुम्हारी फूल हो जैसे 
सारा आलम ख़ुश्बू-ख़ुश्बू

बीच हमारे अब भी वो ही 
तू-तू-मैं-मैं, मैं-मैं-तू-तू 

दुनिया को क्यूँ कोसे ज़ालिम 
जैसी दुनिया वैसा है तू

नींद के पार उभर आया है 
ख़्वाब सरीखा कोई टापू 


[हिंदी चेतना जनवरी-मार्च 2013 अंक में प्रकाशित]


20 November 2008

ग़ज़ल - सबका अपना अपना कहना

सबका अपना, अपना कहना।
कहते रहना, कहते रहना।
.
ये कश्ती ही जाने है बस,
किस जानिब है उसको बहना।
.
बात पता ये मुझको ना थी,
बिन तेरे है मुश्किल रहना।
.
दिल में जो हैं दर्द पुराने,
वो चाहे बस दिल में रहना।
.
सोच यही माँ बेचे जेवर,
मेरे बच्चे मेरा गहना।
.
झूठ बड़ा होने से पहले,
लाजिम है फ़िर सच को कहना।
.
बाबा ने एक बात सिखाई,
बेटा आगे बढ़ते रहना।

15 November 2008

मेरा पहला कदम................................."दो आँसू"

बात २००१-२००२ की है, जब मैं १२वी में था। मेरे स्कूल में १५ अगस्त,२००१ को एक कवि सम्मलेन का आयोजन हुआ था और उसमे विद्यार्थियों को भी पड़ने के लिए आमंत्रित किया गया था मगर शर्त थी अगर वो अपना कुछ लिखते हो। मुझे उस दिन एहसास हुआ की काश अगर मेरी भी कुछ कवितायेँ होती तो शायद मैं भी उन लोगो के साथ मंच पे होता। लिखने की रूचि मेरी पहले से थी लेकिन पहले मैं निबंध लिखता था और कई प्रतियोगिताएं भी जीता था। मगर कविता लिखना एक अलग विधा थी। मगर उस दिन की घटना का मुझे काफ़ी अफ़सोस हो रहा था और मैं उस कवि-सम्मलेन को सुनने के लिए भी नही गया। शायद यही मैंने अच्छा काम किया, अब आप सोच रहे होंगे ऐसा मैं क्यों कह रहा हूँ। दरअसल मेरे अन्दर एक रचना(कविता) आकर ले रही थी और शाम को जिस वक्त स्कूल में कवि-सम्मलेन हो रहा था, उसी वक्त मैंने अपने जीवन की पहली कविता लिखी।
उस कविता का शीर्षक था ............ "दो आँसू"
और वो कविता ये है..............

जीवन है एक दिया हम उसकी बाती हैं।
समर्पण है लौ उसकी, बाती को जो जलाती है।
क्षितिज को आज तक कौन छू पाया है।
ढूँढ़ते है इश्वर को वो तो दिल में समाया है।
हर पल है चलना हमको और चलते जाना है।
इन सिमटी हुई राहों पे ही उम्मीदों का महल बनाना है।
काफी नही है इतना और भी कुछ करना है।
आज जन्म हुआ है तो कल सभी को मरना है।
तमन्ना नही की दुनिया में मेरा नाम हो सके।
आरजू है बस इतनी मेरे जाने के बाद,
मुझ पर कोई "दो आंसू" रो सके।
उसके बाद ये सिलसिला चल पड़ा मगर उसमे भी बहुत सी कहानियाँ है, की कब मैंने कविताओं का दामन छोड़ के ग़ज़ल का आँचल थाम लिया। वो आगे कभी...............

11 November 2008

ग़ज़ल - अब तीरगी को मात ये देकर ही बुझेगा

अब तीरगी को मात ये देकर ही बुझेगा।
लड़कर हवा से ये दिया जोरों से जलेगा।
.
मेरी बुलंदी का धुआं यारों मत बनाओं,
किस को ख़बर है किस की ये आंखों में चुभेगा।
.
तह पड़ चुकी है गर्द की रिश्तों पे यहाँ यूँ,
पोछा गया तब कुछ नया ताज़ा सा दिखेगा।
.
चाहे बड़ा कितना भी हो जाऊँ, माँ के आगे,
दर पे झुका है सर मिरा झुकता ही रहेगा।
.
अच्छा सलीका है सिखाने का यार उसको,
वो खुदबखुद ही सीख जाएगा जब गिरेगा।
.
मैंने हुनर में रख तराशा है एक संग जो,
ऊँचे अगर, मैं दाम रख बेचूं तो बिकेगा।

08 November 2008

समीक्षा - "दुआ कीजे" [मुस्तफा "माहिर" पन्तनगरी]

मेरे अज़ीज़ दोस्त और साथी शायर मुस्तफा "माहिर" की पहली किताब "दुआ कीजे" "अमृत प्रकाशन" शाहदरा, दिल्ली-११००३२ से प्रकाशित हो गई है। मेरी तरफ़ से उन्हें दिली मुबारक़बाद। 

एक छोटा सा परिचय :-
"माहिर" का जन्म २ नवम्बर १९८४ को पंतनगर, उत्तराखंड में हुआ। बरेली कॉलेज से सन २००५ में बी.एस.सी. के बाद उन्होंने के.सी.एम.टी. बरेली से सन २००८ में एम.बी.ऐ. की डिग्री हासिल की। 

उनकी किताब "दुआ कीजे" ग़ज़ल संग्रह है. किताब की शुरुआत ही एक बेहतरीन शेर से हुई है।
"इक मिसरा है प्यार तुम्हारा
दूजा मिसरा ग़ज़लें हमारी"


"दुआ कीजे" के कुछ ग़ज़ल और शेर मैं उनकी अनुमति से यहाँ लिख रहा हूँ। 


1)-
कितनी ही नदियों से हाथ मिलाया है।
तब जाके सागर, सागर बन पाया है।

तेरे रहबर लोग हुए लेकिन मुझको,
राह की ठोकर ने चलना सिखलाया है।

उसकी बातों से लेकर आंखों तक पे,
लोगों ने अक्सर ही मुझको पाया है।

२)-
खुशी की एक है लेकिन किरण में ज़िन्दगी तो है।
ज़रा सी देर ही को है अमन में ज़िन्दगी तो है।

हमें इसका नही शिकवा वो आता है घड़ी भर को,
मिलन कितना भी छोटा है मिलन में ज़िन्दगी तो है।

ठहर जाने का मतलब है मिटा लेना खुदी अपनी,
चले निकलों, चले निकलों, थकन में ज़िन्दगी तो है।

तवायफ दर्द की, पायल बजके शोर करती है,
मगर उसकी इसी छन छनन में ज़िन्दगी तो है।

खिले थे गुल सभी लेकिन सभी मायूस कितने थे,
किसी तितली के आने से चमन में ज़िन्दगी तो है।

कुछ शेर "दुआ कीजे" से ......

१)-
इससे अच्छी बात भला क्या हो ग़म में,
जो अपने लगते थे वो अपने निकले।
२)-
उन लम्हों में ऐसा कुछ भी ख़ास नही,
साथ तुम्हारे बीते थे तो याद रहे।
३)-
नज़र वो है जो लम्हें भर में कर ले जुस्तजू पूरी,
सुबह तक तो अन्धेरें भी उजाले ढूँढ लेते हैं।
४)-
इस सियासत की जुबा में लफ़्ज़ के कहने का गर,
ढंग भी बदला तो मतलब दूसरा हो जाएगा।

मैं यही दुआ करता हूँ की ये किताब एक मिसाल बने.

04 November 2008

ग़ज़ल - कभी झूठा समझता है, कभी सच्चा समझता है


कभी झूठा समझता है, कभी सच्चा समझता है।
ये उसके मन पे है छोडा वो जो अच्छा समझता है।
.
बिताये संग थे लम्हें तिरी वो याद पागल सी ,
ज़हन में आ ही जाते है जो दिल तनहा समझता है।
.
मुहब्बत और चाहत को न जाने कब तू समझेगा,
जो तेरी याद में जलता हुआ लम्हा समझता है।
.
चले आते है फ़िर क्यों सब उसी कानून पे जिसको,
कोई अँधा समझता है, कोई गूंगा समझता है।
.
वो रखता है मुझे दिल में, छिपाता है सभी से ही,
ये मेरी खुशनसीबी के मुझे अपना समझता है।

21 October 2008

मुझसे मिरा हक छीनो, ये हक मैंने नही दिया तुमको.

1)
नटखट बचपन मेरा है, उसको नटखट ही रहने दो।
पागल आवारा दिल को मस्ती अल्हड में बहने दो।
मैं बूढा हूँ तो क्या जो सच है मुझको वो कहने दो।
कुछ और ही सोचा है मैंने, मुझे भरोसा है उस पर।
मैंने बुनी अपनी दुनिया, मुझे भरोसा है उस पर।
तुम कौन हो मुझको बतलाते, ग़लत सही की परिभाषा,
मुझसे मिरा हक छीनो, ये हक मैंने नही दिया तुमको।
२)
मैं जनता हूँ बेचारी जो चुनती सरकारें सत्ता।
मैं भाषा हूँ तुम लोगो की, बोले मुझको हर बच्चा।
मैं सच हूँ ये सब जाने पर कौन यहाँ सच की सुनता।
कुछ मैंने तुमसे कहा नही, जब तुमने करी अपने मन की।
सब कुछ तो मैंने सहा सभी, जब तुमने करी अपने मन की।
तुम कौन हो मुझको बतलाते, ग़लत सही की परिभाषा,
मुझसे मिरा हक छीनो, ये हक मैंने नही दिया तुमको।

18 October 2008

ग़ज़ल - जो है ग़लत उसका इंक़लाब करता है..

जो है ग़लत उसका इंक़लाब करता है।
तुम ही बताओ वो क्या ख़राब करता है।
.
एक बात छोटी सी तुम दिमाग में रखना,
मुश्किल में ही इंसा लाजवाब करता है।
.
करते रहो नेकी और बढ़ चलो आगे,
कोई भला क्या गिन के सबाब करता है।
.
मुझसे निगाहें मिल के निगाह का झुकना,
तेरी अदाओं को कामयाब करता है।
.
कोई मुहब्बत में ख़त कहीं जलाता है,
कोई कहीं उनको इक किताब करता है।

15 October 2008

ग़ज़ल - रात भर ख़त तिरा इक खुला रह गया

दो दिन से बुखार के कारण बिस्तर पर पड़ा हुआ था, और उसी का परिणाम है कुछ ग़ज़लें। उनमे से जो ग़ज़ल सबसे पहली बनी थी उसे यहाँ पे पेश कर रहा हूँ, गुरु जी( पंकज सुबीर जी) की भी बात दिमाग में थी.....

"प्रिय अंकित तुम्‍हारी ग़ज़लें देख रहा हूं और ये पा रहा हूं कि तुम कठिन काफिया और रदीफ के चक्‍कर में उलझे हो और उसी के कारण भर्ती के काफिये और रदीफ लेने पड़ रहे हैं । मैनं पिछली कक्षाओं में बताया है कि ज़रूरी नहीं है कि कठिन काफिया और रदीफ ही लिया जाये । सरल काफियों पर भी बेहतरीन ग़ज़लें लिखी गईं हैं । ग़ालिब की मशहूर ग़ज़लें बहुत सरल काफियों पर हैं । तुम्‍हारी पिछली दोनों ग़ज़लें कठिन काफियों और कठिन रदीफों का शिकार हैं । इससे बाहर निकलो और आम बोलचाल की भाषा में लिखो जैसे ग़ालिब कहते हैं कि हरेक बात पे कहते हो तुम के तू क्‍या है तुम्‍हीं कहो के ये अंदाज़े ग़ुफ्तगू क्‍या है । सरल लिखो पर गहरा लिखो । कठिन लिखोगे तो उथला हो जायेगा ।"

बहरे मुतदारिक मुसमन सालिम
२१२-२१२-२१२-२१२ 

रात भर ख़त तिरा इक खुला रह गया।
मेरे कमरे में जलता दिया रह गया।
.
भूख दौलत की बढती रही दिनबदिन,
आदमी पीछे ही भागता रह गया।
.
छीन के ले लिया मुझसे दुनिया ने सब,
इक तिरी याद का आसरा रह गया।

11 October 2008

काव्य संकलन - "अँधेरी रात का सूरज" देखो उग गया.....

मैं नीरज जी कुछ पंक्तियाँ उधार लेना चाहूँगा,
"मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता...लेकिन क्या हम उन्हें भली भांति जानते हैं जिनसे हमारा व्यक्तिगत परिचय होता है?"

मैं अपनी हार्दिक शुभकामनाएं राकेश खंडेलवाल जी को दे रहा हूँ, उनके काव्य संकलन "अँधेरी रात का सूरज" के लिए जो अपने आप में अदभुत है और एक इतिहास का निर्माण कर रहा है, केवल रचनाओं के रूप में ही नहीं वरन विमोचन के रूप में भी।

मैं उनको उन्हीं के एक गीत की २ पंक्तियों से बधाई देना चाहता हूँ, जो अपने आप में बहुत कुछ समेटे हुए है, अगर कहा जाए तो "गागर में सागर"।

मीत अगर तुम साथ निभाओ तो फिर गीत एक दो क्या है,
मैं सावन बन कर गीतों की अविरल रिमझिम बरसाऊंगा।

08 October 2008

ग़ज़ल - चंदा मामा कांच की कटोरी कहाँ हैं?

चंदा मामा कांच की कटोरी कहाँ हैं?
रहती थी जो हर जुबां पे लोरी कहाँ हैं?

झूठी लगती हैं अनाज सड़ने की बातें,
लाला सच को बोल दो वो बोरी कहाँ हैं?

रहते हैं अब मॉम डैड सब की जुबां पे,
अब वो बाबा और मैय्या मोरी कहाँ हैं?

उलझे इतने हैं सभी किताबों में आजकल,
उस बचपने नादान की वो चोरी कहाँ हैं?

रह के तेरे साथ ग़म खुशी को जिया है,
तुमने छोड़ी हमने भी बटोरी कहाँ हैं?

05 October 2008

ग़ज़ल - तू यकीन मेरा है, मैं यकीन तेरा हूँ

भूख प्यास जिंदा है सब के ही निवालों में।
पत्तलों में हो या सोने के राज थालों में।


तू यकीन मेरा है, मैं यकीन तेरा हूँ,
हम उलझ गए दोनों बेवजह सवालों में।


दीप वो लड़े शब से जान डाल जोखिम में,
भूल सब गए हम वो सुबह के उजालों में।


दौड़ता है रग-रग में खू नया उमंगों का,
तुम भरो मसाला ये सत्य की मशालों में।

02 October 2008

बापू के लिए ...............

वक्त की सिलवट में रहे माज़ी की खुशबू।
आज भी ताज़ा सी है, आज़ादी की खुशबू।
महकता है हिंदोस्ता, जब महकती है,
अनगिनत वीरों और एक गाँधी की खुशबू।

27 September 2008

समेटो रौशनी अभी चिराग...............

समेटो रौशनी अभी चिराग, बुझने के लिए।
उजाले आफताब के खड़े उलझने के लिए।

मुकम्मल तुम करो अभी यहीं पे लड़ के हार को,
हमारे हौसले जवाब हैं, समझने के लिए।

11 August 2008

खाई हैं ठोकरें....

खाई हैं ठोकरें तभी तो सम्हला हूँ आगे।
लड़ा हूँ ज़माने से और निकला हूँ आगे।

मुझको मुश्किलों ने बना तो दिया पत्थर,
जज़्बात जब कभी भी छुए पिघला हूँ आगे।

04 August 2008

ग़ज़ल - रात दिन ख़यालों में इक अजब खुमारी है

रात दिन ख़यालों में इक अजब खुमारी है।
नींद हमसे रूठी है, करवटों की क्यारी है।

जैसे तुम नज़र में हो, जिंदगी में आ जाओ,
राह तेरी देखे जो रूह वो बेचारी है।

ढूँढता क्यों रहता है, ख़ुद को मेरी आंखों में,
तेरे बारे में कहती हर ग़ज़ल हमारी है।

24 March 2008

ग़ज़ल - अब तलक मेरा रहा अब आपका हो जाएगा

बहरे रमल मुसमन महजूफ
२१२२-२१२२-२१२२-२१२

अब तलक मेरा रहा अब आपका हो जाएगा।
इस दिवाने यार दिल का कुछ पता हो जाएगा।

तू अगर चाहे तो तुझको मैं भुला दूँगा मगर,
है जो वादा धड़कनों से वो दगा हो जाएगा।

आज की ये ज़िन्दगी अब ताजगी खोने लगी,
याद कर बातें पुरानी सब नया हो जाएगा।

दिल जिगर में, धड़कनों में, रूह में तू बस गई,
बिन तिरे जीना बड़ा मुश्किल मिरा हो जाएगा।

इश्क में यारों ने हिम्मत तो बड़ा दी है "सफर",
सामने जब वो रहंगे सब हवा हो जाएगा।

28 January 2008

मेरा पहला कलाम, आप सभी को सलाम.

दोस्तों, आप सभी को अंकित "सफ़र" का सलाम।
ये मेरी एक कोशिश है जिसके तहत मैं अपनी गजलों, शेरों, कविताओं और नज्मों से आपको रूबरू करवाउंगा। मैं शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ मोहन "मुन्तजिर" का जिनकी शागिर्दी में मैंने काफी कुछ सीखा और उन्होंने मुझे छोटी छोटी बारीकियों से बवास्ता करवाया। मैं शुक्रगुजार हूँ अपने शायर दोस्तों मुस्तफा "माहिर" और अरुण "मासूम" का जिनके साथ मैंने अपनी शायरी को निखारा और उन्होंने कदम कदम पे मेरा साथ दिया।

मगर एक बात जो की कहना बहुत ज़रूरी है वो बात है उस जगह की जहाँ मेरा जन्म हुआ है, जिसकी मिटटी में मैं खेला हूँ,पला हूँ बड़ा हुआ हूँ और सिर्फ़ मेरे लिए ही नहीं ये बात मेरे दोस्तों के लिए भी सच है उस पंतनगर की सरज़मी ने हम लोगों को बहुत कुछ दिया है और हम उसे कभी भूल नहीं सकते।


वैसे कहने को तो बहुत बातें हैं और वो मैं कहूँगा भी और लिखूंगा भी, बस आपको भी थोड़ा इंतज़ार करना पड़ेगा क्योंकि अब आपके और मेरी शायरी की बीच जो दूरियां थी वो दूर हो गई हैं।

चंद मिसरे आप सभी के लिए .............................

आप सब जो हैं मिरे, सलाम लिख रहा हूँ।
राज़ दिल के आज मैं तमाम लिख रहा हूँ।

दिल मिरा है इंतज़ार में किसी हसीं के,
मुद्दतों से मुद्दई, वो शाम लिख रहा हूँ।