29 November 2010

ग़ज़ल - मैंने किसी की आँख में देखा तुझे ऐ ज़िन्दगी

ये ग़ज़ल वैसे तो  गुरु जी के ब्लॉग पर, दीपावली के तरही मुशायरे में अपनी हाजिरी लगा चुकी है, क्योंकि कुछ व्यस्तता के कारण नयी ग़ज़ल कहने में थोडा वक़्त लगेगा लेकिन ब्लॉग का सफ़र भी चलता रहना चाहिए इसलिए ये ग़ज़ल आज फिर से आप सभी से गुफ्तगू करने के लिए हाजिर है.
 

फितरत तेरी पहचानना आसां नहीं है आदमी
मतलब जुडी हर बात में तू घोलता है चाशनी

तुम उस नज़र का ख्वाब हो जो रौशनी से दूर है
एहसास जिसकी शक्ल है, आवाज़ है मौजूदगी

माज़ी शजर के भेष में देता मुझे है छाँव जब
पत्ते गिरे हैं याद के जो शाख कोई हिल गयी

मासूम से दो हाथ हैं थामे कटोरा भूख का
मैंने किसी की आँख में देखा तुझे ऐ ज़िन्दगी

हालात भी करवट बदल कर हो गए जब बेवफा
चुपचाप वो भी हो गयी फिर घुंघरुओं की बंदिनी

लाये अमावस रात से उम्मीद की जो ये सहर
"जलते रहें दीपक सदा, क़ायम रहे ये रौशनी"

क्यों बेवजह उलझे रहें हम-तुम सवालों में "सफ़र"
जब दरमयां हर बात है आकर भरोसे पर टिकी

बहर:- रजज (२२१२-२२१२-२२१२-२२१२)

29 October 2010

ग़ज़ल - अश्कों से सींची ये क्यारी लगती है

आज जिस ग़ज़ल को आप सभी से रूबरू करवा रहा हूँ, उसे कुछ रोज़ पहले बेलापुर में हुए, एक कवि सम्मलेन-मुशायरे में पढ़ा था. नीरज जी का शुक्रगुज़ार हूँ जिन्होंने बेलापुर में हुए इस कार्यक्रम के बारे में बताया और मुझे पढने का अवसर भी दिलवाया. उस कवि सम्मलेन-मुशायेरे में अज़ीम शायर, जाफ़र रज़ा साहब से भी मुलाक़ात हुई और उनके नायाब शेरों को सुनने का सौभाग्य भी मुझे मिला, मगर वक़्त का खेल देखिये, अभी कुछ दिन पूर्व ही वो शेरों-शायरी का खूबसूरत नगीना हम सभी से दूर उस ऊपर वाले की पनाह में चला गया है. मेरी ये ग़ज़ल, जाफ़र रज़ा साहब को समर्पित है.

(चित्र:- बन्दर-कूदनी, भेराघाट, जबलपुर)

अश्कों से सींची ये क्यारी लगती है
आँखों में ही रात गुजारी लगती है

दिल की बातों को उन तक पहुंचाने में
आँखों की थोड़ी फनकारी लगती है

चाँद-सितारों का आँचल शब ओढ़े पर
दुनिया को फिर भी अंधियारी लगती है

बोझ किताबों का लादेनन्ही सी जाँ 
उम्मीदों की इक अलमारी लगती है

भूखे पेट से पूछो तुम सूखी रोटी
कितनी मीठी, कितनी प्यारी लगती है

नाज़ुक रिश्ते आग पकड़ते हैं जल्दी
बातों-बातों में चिंगारी लगती है

24 September 2010

ग़ज़ल - मैंने सोचा उसे, सोचता रह गया.

ऐसा लग रहा है कि एक मुद्दत हो गयी, कुछ कहें, कुछ लिखे इस ब्लॉग पर.......... कुछ धुंधला सा नज़र आता है कि इस ब्लॉग पे पिछली पोस्ट तकरीबन २ महीने पहले लगी थी, और तब से कुछ नहीं. वजह फिर वही पुरानी, घिसी-पिटी, उसी वक़्त की सख्ती, उसी वक़्त को बारहा कोसना।

इसी दरम्यान ऑफिस के काम के सिलसिले में 'श्री लंका' भी जाना हुआ, घूमना फिरना तो ज्यादा हुआ नहीं इसलिए यात्रा वृतांत क्या लिखूँ ......... जितना भी श्री लंका को देखा, समझा और जाना, उससे बहुत खूबसूरत देश लगा, वहां के लोग बहुत अच्छे लगे. 

एक छोटा देश, जिसकी आबादी मात्र  २ करोड़ है, ये मात्र इसलिए क्योंकि तकरीबन इतनी आबादी तो मुंबई में ही होगी।  बाहर घूमने के लिए जब कोलम्बो में मॉल, सड़कों और गलियों की सैर की तो शुरू में लगा कि आज शायद शहर बंद होगा, मगर फिर पता लगा ये तो आम है, किसी आम दिन की तरह ...... अब मुंबई की भीड़ देखने के बाद अगर कहीं किसी और जगह जब कुछ कम लोग दिखते हैं तो आँखों को कुछ खटकता सा लगता है.

आप सब के लिए उन गुज़री यादों को सहेजे हुए एक फोटो छोड़ जा रहा हूँ जो मोबाइल फ़ोन से गाले नामक जगह में एक पर्वत से खींची गयी है। ये वो पर्वत है जिसे लोकात्तियों एवं पारंपरिक मान्यताओं के अनुसार हनुमान जी द्वारा हिमालय से लाया गया था, जिसे संजीवनी पर्वत के नाम से विख्याति मिली। कहते है कि आज भी यहाँ इस पर्वत पे संजीवनी और उसके अलावा भी कई अमूल्य और अचूक जड़ी-बूटियाँ उपलब्ध हैं।


इन बातों से आगे बढ़ते हुए एक ग़ज़ल आप सब के लिए वैसे तो ये ग़ज़ल थोड़ी पुरानी है, सीहोर में हुई नशिस्त में सुनाई थी तब से वीनस पीछे पढ़ा हुआ था कि ब्लॉग पे फिर से लगा दो।

बहरे मुतदारिक मुसमन सालिम (२१२-२१२-२१२-२१२)

रात भर ख़त तेरा यूँ खुला रह गया।
जैसे कमरे में जलता दिया रह गया।

भूख दौलत की बढती रही दिन-ब-दिन,
आदमी पीछे ही भागता रह गया।

छीन के ले गई मुझ से दुनिया ये सब,
बस तेरी याद का आसरा रह गया।

ख़्वाब की ज़िन्दगी क्या है किसको पता?
एक पूरा हुआ, दूसरा रह गया।

पास आ तो गए पर न वो बात है,
कुरबतें तो बढ़ी, फासला रह गया।

क्या बताऊँ "सफ़र", उसके बारे में अब,
मैंने सोचा उसे, सोचता रह गया।

******************


तो ये थी जनाब मेरी ग़ज़ल और जाते जाते आप सब के लिए छोड़ जा रहा हूँ जगजीत सिंह साहब की रेशमी आवाज़ में इस "फूल खिला दे .............." ग़ज़ल को। जिसे उन्होंने काफी वक़्त बाद किसी फिल्म में गाया है, शकील आज़मी साहब की लिखी हुई ये ग़ज़ल रूप कुमार राठोड के संगीत में लयबद्ध है. फिल्म का नाम है "लाइफ एक्सप्रेस". तब तक आप भी अपने आप को भिगोइए इस ग़ज़ल में।


आप इस ग़ज़ल को यहाँ से डाउनलोड भी कर सकते हैं - http://www.divshare.com/download/12639002-7e3

15 July 2010

ग़ज़ल - मेघों की साहूकारी में सिर्फ बहाने मिलते हैं

तक़रीबन एक महिना होने को आ गया है और ब्लॉग ख़ामोशी ओढ़ के बैठा हुआ था मगर कर भी क्या सकते हैं, थोड़ी व्यस्तता ही रही या कहूं पूरी व्यस्तता रही और वक़्त ही नहीं मिल पा रहा था. इस बेबसी के आलम में लगता था कि ब्लॉग कहीं बेकग्राउंड  में "दिल ढूँढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन.........." गाना बजा रहा है और बुला रहा है। 
(चित्र:- सागर, मध्य प्रदेश)

चलिए इस वक़्त की कंजूसी को बाय-बाय कहते हुए हाज़िर हूँ एक ताज़ा ग़ज़ल के साथ, गुरुदेव पंकज सुबीर जी द्वारा इस्लाह की गयी ये ग़ज़ल अब आपके रूबरू है। 

ख़्वाबों में माज़ी के कुछ धुंधलें अफ़साने मिलते हैं
छाँव तले पीपल की बैठे लोग सयाने मिलते हैं

प्यासी धरती माँग रही कब से थोड़ी बारिश लेकिन
मेघों की साहूकारी में सिर्फ़ बहाने मिलते हैं

दूर नदी परबत की बाहों में उमड़े तो लगता है
दुनिया की नज़रों से छिपकर दो दीवाने मिलते हैं

अंगड़ाई जब भी लेते बीते लम्हें बेचैनी में
फूल तुम्हारी यादों के मुझको सिरहाने मिलते हैं

बड़े बुजुर्गों की बातें लगती हैं पीर फ़क़ीरों सी,
उनकी संगत में बैठो तो छिपे ख़ज़ाने मिलते हैं

वक़्त बदल देता है चेहरे और इन्सां की नीयत भी 
कसमों-वादों की गलियों में अब वीराने मिलते हैं 

[त्रैमासिक 'नई ग़ज़ल' के जुलाई-सितम्बर 2011 अंक में प्रकाशित]



18 June 2010

मुद्दतों से मुद्दई ये मुलाक़ात लिख रहा था

यूँ तो इस बात को या कहें मुलाक़ात को बराबर २ हफ्ते होने वाले हैं मगर मेरी इस देरी से इस पर कोई फ़र्क नहीं पढने वाला है. मुंबई में झमाझम बारिश शुरू हो चुकी है, जिस बात का ज़िक्र पिछली पोस्ट में किया था, हाँ वो मानसून वाली फिल्म , हाँ वो लग चुकी है और लोग आनंदित भी हैं और परेशान भी.
लौटते हैं मुद्दे पर, किसी ने ठीक ही कहा है और जिसने ये कहा है ये पोस्ट भी उसी के बारे में है कि "मुंबई में अच्छे इंसान और अच्छी हिंदी की किताबें मिलना बहुत मुश्किल है", अगर ये मिलते भी हैं तो कुछ मेहनत के बाद नहीं नहीं काफी मेहनत के बाद या फिर आपकी किस्मत के सितारें नक्षत्रों के अच्छे दोस्त हो तब ही ये मुमकिन है, मैं नहीं जानता मेरे साथ कौन सा चमत्कार हुआ इनमे से या फिर वो कुछ और ही था मेरी सोच समझ से परे...............

दिनांक ४ जून, २०१० को ठीक ४ बजकर ५३ मिनट पे मेरे सेल-फ़ोन पर नीरज जी की कॉल की दस्तक हुई और बात हुई के बहुत दिन हो गए ब्लॉग और फ़ोन पे बतियाते अब आमने-सामने मिला जाए और दिन मुक़र्रर हुआ अगला दिन यानी ५ जून, २०१०, जगह खोपोली, मुंबई-पुणे रास्ते पे बसा एक खूबसूरत नगर.
बस फिर क्या, पहुँच गए खोपोली नीरज जी से मिलने, अब नीरज जी के बारे में कुछ कहूँगा तो लफ्ज़ कहेंगे कि बस इतना ही अरे ये तो तुमने इनके बारे में बताया ही नहीं, अरे तुम ये भी कहना भूल गए ................. इसलिए एक सुझाव है कि आप भी इनसे ज़रूर मिले वर्ना समझ लीजिये के कुछ अधूरा ही लगेगा और रहेगा भी.

नीरज जी से मिलने के साथ ही साथ मुलाक़ात हुई उनके द्वारा संजोये हुए किताबों के जखीरे से, जो उनके ब्लॉग पे संचालित किताबों की दुनिया की बुनियाद है, दिन तो हसीं हो ही गया था शब्दों के संसार में विचरण करके और शाम को खोपोली की सैर, सोने पे सुहागा हो गया. खोपोली बहुत खूबसूरत है और हो भी क्यों ना, जहाँ एक खुशमिजाज इंसान रहेगा वहां का मौसम भी उसके जैसा ही होगा. 
रात को खाना खाने के बाद, महफ़िल जम गयी, एक सिरे पे नीरज जी और दूजे पे मैं, दे दना दन शेर, ग़ज़लें निकल रहे थे समझ लीजिये की नशिस्त का miniaturisation था मगर जो भी था मजेदार रहा.
अगली सुबह तो क्रिकेट के साथ शुरू हुई, भूषन स्टील में एक बहुत अच्छी कोशिश है सब लोगों को एक मंच पे या एक  पिच पे लाने की, रोज़ सुबह सब लोग अपने पद, पदवी को मैदान के बाहर रख कर क्रिकेट खेलने जुटते हैं और नीरज जी अगुवा होते हैं. मैंने भी काफी दिनों से क्रिकेट नहीं खेला था और ये मुराद भी पूरी हो गयी.
ऊपर चित्र में नीरज जी bowling करते हुए 
मौसम भी साथ था इसलिए धडाधड दो मैच खेल लिए, नीरज जी ने इस मैच में batting भी करी, bowling भी करी, fielding भी करी और umpiring भी करी, ऐसे all -rounder से अगर नहीं मिले तो फिर क्या बात हुई (गुरु जी मुंबई जल्दी आ जाइये).
इस मजेदार खेल के बाद रविवार की शाम प्रकाश झा के नाम रही, मगर राजनीति ने बहुत राजनीति खेली हमारे साथ, टिकेट ही नहीं मिल पा रहा था मगर हार मानने वाले हम भी नहीं थे, आखिर में लेकर ही छोड़ा.
फिल्म देखने से पहले हम लोग इंतज़ार में बाहर बैठे थे तभी का ये चित्र और एक जिंदादिल हसीं, फेविकोल के मजबूत जोड़ सी चेहरे पे हर वक़्त की तरह खिल रही थी.
मुद्दतों से मुद्दई जिस मुलाक़ात को मैं सोच रहा था आख़िरकार वो मुकम्मल हुई.

04 June 2010

मानसून का advertisement

मुंबई में मानसून का प्रचार अभियान (हल्की फुल्की फुहारें) शुरू हो गया है, वैसे ये बताता चलूँ कि 'मानसून' से मतलब मानसून से ही है जग मुंधरा जी की फिल्म से नहीं है, ....................ये वो है जिसके बारे में मौसम विभाग कभी सही नहीं बता पाया इसलिए इस बार शायद उन्होंने कुछ ना कहने की सोची होगी तभी तो कोई सूचना या भविष्यवाणी सुनने को नहीं मिली. वैसे वो खामोश तो नहीं रहते और न होंगे उनकी आदत तो ऐसी नहीं थी ना है और ना होगी, हो सकता है मैंने ही उन की कही बातों पे गौर करना बंद कर दिया हो, जाने-अनजाने में.........चलो खैर जो भी हो.

एक अदद गर्मी के बाद, शायद रिकॉर्ड बना चुकी गर्मी, ऊपर से ये उमस उफ्फ्फ्फ़, (इसका ज़िक्र किये बिना गर्मी का नाम और काम अधूरा ही होगा)......शरीर से सब कुछ निचोड़ के चेहरे पे कुछ बूंदों की शक्ल में रख देती है, वैसे एक हल्की फुहार भी कुछ ऐसी ही बूंदे छोड़ देती है मगर दोनों में कितना अंतर है एक समानता होते हुए भी बिलकुल सुख-दुःख की तरह.

कल शाम जो बादल आसमान के आँचल में किसी फूल से सजे हुए थे, शाम ढलते-ढलते, रात में ना जाने क्या सोच के कुछ शरारत कर गए, लोगों के दिलों में कुछ उमीदें बरसा गए. मैंने भी बाहर जाके ख़ुद को भिगोना चाहा, कुछ बूंदों ने चेहरे को चूमा भी मगर शायद आवारा हवा को मेरी ये आवारगी अच्छी नहीं लगी और वो बादलों को उड़ा ले गयी. चलो जो कुछ ना से कुछ तो सही, छोटा-मोटा ही सही मानसून का premiere तो देख ही लिया..........वैसे केरल में तो फिल्म लग चुकी है, हफ्ते दो हफ्ते में अपने यहाँ भी लगने की उम्मीद है फिर भीगेंगे फुर्सत से.......

31 May 2010

एक खुशबू टहलती रही (काव्य संग्रह) - मोनिका हठीला (भोजक)

८ मई, २०१० को सीहोर, मध्य प्रदेश में जनाब डा. बशीर बद्र , जनाब बेकल उत्साही, हर दिल अज़ीज़ राहत इन्दौरी और नुसरत मेहंदी साहिबा के कर कमलों द्वारा मोनिका हठीला (भोजक) दीदी के काव्य संग्रह "एक खुशबू टहलती रही" का विमोचन हुआ.

माँ सरस्वती की वीणा से निकले शब्द जिस के शब्दों में घुल-मिल जाएँ तो परिणामस्वरूप आने वाली रचना अपनी अभिव्यक्ति से पढने वाले सुधि पाठक को एक आनंदमय एहसास देती है और शब्दों की खुशबू मन की असीम गहराइयों में उतरकर उसे आनंदित कर देती है.
मोनिका हठीला दीदी से मिलने और उनको सुनने का सौभाग्य मुझे मिला है और उनसे मिलने के बाद मैं इस बात से दोराय नहीं रखता कि स्वयं माँ शारदे का आशीर्वाद उनके साथ है. साहित्य के प्रति उनका ये समर्पण भाव उन्ही के शब्दों में परिलक्षित होता है-

"मैं चंचल निर्मल सरिता
भावों की बहती कविता
कविता मेरा भगवान्, मुझे गाने दो
गीतों में बसते प्राण मुझे गाने दो"


किसी भी रचना के शब्द, सिर्फ उस रचना को अभिव्यक्त नहीं करते वरन उसके रचियता के व्यक्तित्व का भी प्रतिनिधित्व करते हैं. मोनिका दीदी की हर रचना इसका साक्षात प्रमाण है-

"मन आँगन में करे बसेरा सुधियों का सन्यासी
मौसम का बंजारा गाये गीत तुम्हारे नाम."

या
" कलियों के मधुबन से, गीतों के छंद चुने
सिन्दूरी, क्षितिजों से सपनो के तार बुने
सपनों का तार तार वृन्दावन धाम
एक गीत और तेरे नाम"


"एक खुशबू टहलती रही" में शब्दों का ये सफ़र गीत, ग़ज़ल, लोक-भाषाई गीत, मौसम के गीत और मुक्तकों की शक्ल में हर भाव, हर एहसास को पिरोये हुए है. लफ़्ज़ों पे पकड़ किसी विधा विशेष की मेहमान नहीं होती, वो तो कोई भी लिबास पहन ले उसमे ही निखर पड़ती है, चाहे वो गीत हो या ग़ज़ल और इस बात का प्रमाण मोनिका दीदी के चंद अशआरों में नुमाया होता है-

"लिल्लाह ऐसे देखकर मैला ना कीजिये,
बेदाग़ चाँद चांदनी में नहाये हुए हैं हम."

या
"कहीं ख्वाब बनकर भुला तो न दोगे.
मुझे ज़िन्दगी की सजा तो न दोगे.
हँसाने से पहले बस इतना बता दो,
हंसाते-हंसाते रुला तो न दोगे."


राष्ट्रीय मंचों पे कविता पाठ कर चुकी मोनिका दीदी की पुस्तक "एक खुशबू टहलती रही" गीतों और ग़ज़लों का एक सुनहरा सफ़र है जो अपने साथ-साथ पढने वाले के मन-हृदय पर एक खुस्बूनुमा एहसास छोड़ जाता है. ये पुस्तक साहित्य का एक अनमोल नगीना है जिसे आप अपने पास सहेज के रखना पसंद करेंगे. 

मेरी सहस्त्र शुभकामनायें.

एक खुशबू टहलती रही (काव्य संग्रह)
ISBN: 978-81-909734-2-7
मोनिका हठीला (भोजक)
द्वारा श्री प्रशांत भोजक, मकान नं. बी-164
आर.टी.ओ. रीलोकेशन साइट, भुज, कच्छ (गुजरात ), संपर्क: 09825851121
मूल्य : 250 रुपये, प्रथम संस्करण : 2010
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प्रकाशक : शिवना प्रकाशन
पी.सी. लैब, सम्राट कॉम्प्लैक्स बेसमेंट, बस स्टैंड, सीहोर -466001
(म.प्र.) संपर्क 09977855399

26 May 2010

ग़ज़ल - ये तजुर्बे जीतने के, हार को छूकर हैं निकलें

बात कहाँ से शुरू करूं?
अरे आपने वीनस की ये पोस्ट "मेरा 'मैं' और हमारा 'सफ़र'" पढ़ी या नहीं, सच कहा है वीनस ने और बहुत आसान लफ़्ज़ों में एक धारा प्रवाह के साथ, हम में से अधिकतर की, खासकर मेरी तो शुरूआती कहानी बयाँ कर ही दी है.

तालाब से, हाँ तालाब से ही हम में से अधिकतर लोगों ने शुरुआत की है, अगर सीधे ही नदी में कूद पड़ते तो कहीं खो चुके होते, इसलिए छोटी छोटी डुबकियाँ ज़रूरी है और जब सांस रोक के पानी के अन्दर कुछ देर रहना और थोडा बहुत तैरना आ जाता है तो आगे का सफ़र शुरू होता है. ग़ज़ल की नदी में पहुंचकर पहलेपहल कुछ नया सा तो ज़रूर लगता है, मगर जब साथ में तैरते हुए कुछ और भी दिखते हैं तो थोडा हौसला बढता हैं, और जब पथ प्रदर्शक का हाथ सर पे रहता है तो इस प्रवाहमान धारा के साथ सभी चल पड़ते हैं एक सफ़र में, ग़ज़ल के सफ़र में..........कुछ नया सीखने के लिए, कुछ नया सुनने के लिए और कुछ नया कहने के लिए.
अभी कहने की बारी है तो हाज़िर हूँ एक नयी ग़ज़ल के साथ जो गुरु जी (पंकज सुबीर जी) से आशीर्वाद प्राप्त है.

बहरे रमल मुरब्बा सालिम (२१२२-२१२२)

इक कसम लेकर हैं निकलें.
चूमने अम्बर हैं निकलें.

वक़्त ने परखा बहुत है,
वक़्त से छनकर हैं निकलें.

ये तजुर्बे जीतने के,
हार को छूकर हैं निकलें.

आज तुम से मिल के दिल से,
अजनबी कुछ डर हैं निकलें.

कीमतें पहले बढ़ी कुछ,
बाद में ऑफर हैं निकलें.

कुछ चुनिन्दा लोग ही बस,
मील के पत्थर हैं निकलें.

12 May 2010

खास लम्हें.........

कभी-कभी लफ्ज़ कम पड़ जाते हैं या कहें कि मिल नहीं पाते कुछ एहसासों के लिए, किन्ही खास लम्हों को कलमबद्ध करने के लिए मगर तस्वीरें उस काम को काफी हद तक आसान कर देती हैं और खामोश रहते हुए भी कई बातें कह जाती है उन लम्हों के बारे में जो अपने आप में इतने बेशकीमती बन चुके होते हैं कि उनको दिल के इक कोने में बड़ी एहतियात से सम्हाल के रख दिया जाता है.
उन्ही कुछ अनमोल पलों को पिरोये हुए ये तस्वीरें कुछ कह रही हैं...........


(पदम् श्री डॉ. बशीर बद्र से मुलाक़ात का वो इक हसीं पल)

(जनाब राहत इन्दौरी साहेब से आशीर्वाद पाते वीनस, मैं, रवि भाई और अर्श भाई) 

(पदम् श्री बेकल उत्साही साहेब)
 (गुरु जी के सानिध्य में हम चारों)

(मेरा सौभाग्य देखिये, मेरा जन्म दिन भी कुछ ख़ास बन गया)

वीनस, अर्श भाई और रवि जी से पहली बार साक्षात मुलाक़ात हुई मगर ऐसा लगा ही नहीं कि पहली बार मिल रहा हूँ, तीनो ही केवल शब्दों के ही धनी नहीं हैं बल्कि एक उम्दा और विलक्षण शख्ससियत भी रखते हैं और जब गुरु जी (पंकज सुबीर जी) की निर्मल, निश्छल ज्ञान धारा और अविस्मर्णीय प्यार का हमें सानिध्य मिला तो लगा के शायद ही कोई और भी खुशनसीब होगा मगर गौतम भैय्या और कंचन दीदी की वहां पे कमी बहुत, बहुत ज्यादा महसूस हुई. उम्मीद है किसी खास मुलाक़ात के लिए ईश्वर ने वो पल रखा होगा.

22 April 2010

ग़ज़ल - मेरी साँसों में बहती है...तेरी साँसों की सरगम भी

एक ताज़ा ग़ज़ल आपके लिए पेश-ए-ख़िदमत है।

बहर :- बहरे मुतदारिक मुसमन मक्तूअ
रुक्न:- २२-२२-२२-२२

बेचैनी का ये आलम भी.
पागल तुम दीवाने हम भी.

प्यार भरे तेरे इस ख़त में
लफ्ज़ चले आये कुछ नम भी.

मेरी साँसों में बहती है
तेरी साँसों की सरगम भी.

इक संदूक मिला खुशियों का
एक पोटली में कुछ ग़म भी.

साथ चले आये बारिश के
बीती यादों के मौसम भी.

तुमने आने की जिद क्या की
वक़्त चले अब कुछ मद्धम भी.

अभी आप से विदा लेता हूँ इस वादे के साथ कि एक ताज़ा ग़ज़ल के साथ जल्द ही वापिस आऊंगा...............

30 March 2010

ग़ज़ल - गुनाहों को अपने छिपायें कहाँ तक

गुनाहों को अपने छिपायें कहाँ तक.
बहुत दूर जाके भी जायें कहाँ तक.

गलत राह पर उसका गिरना तो तय था 
भला साथ देती दुआयें कहाँ तक.

अहम् को बचाने की जद्दोज़हद में 
वो झूठी कहानी सुनायें कहाँ तक.

हमें खौफ़ गलती का बांधे हुए है 
मगर सच से नज़रे चुरायें कहाँ तक.

न मकसद कोई ज़िन्दगी का तिरे बिन 
ये साँसों से रिश्ता निभायें कहाँ तक.

मिरे मन मुसाफिर को यादों के रस्ते 
भटकने से आखिर बचायें कहाँ तक.

बहरे मुतकारिब मुसमन सालिम (१२२-१२२-१२२-१२२) पर ये ग़ज़ल कही गयी है, इसके बहुत से उदाहरण आपको गौतम भैय्या (मेजर गौतम राजरिशी जी) के ब्लॉग पे मिलेंगे.

अपने विचारों से इसका स्वागत करें...............

23 March 2010

२३ मार्च, १९३१

आज से ठीक ७८ वर्ष पहले, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु ने हँसते-हँसते फांसी के फंदे को चूमा था. कभी ना मरने वाले उस जज़्बे को सलाम.


९ अप्रैल, १९२९ को केंद्रीय सभागार में फेंके गए पर्चे में लिखा था.....................
"It is easy to kill individuals but you cannot kill the ideas. Great empires crumbled while the ideas survived."
इंक़लाब जिंदाबाद

15 March 2010

मेरे कुछ आवारा साथी

कुछ ज्यादा ही ख़ामोशी हो गयी इन दिनों इस ब्लॉग से मगर आज ये ख़ामोशी मेरे कानों में जोर से चीख के गयी है. चलिए इस चुप्पी को तोडा जाये. बिना पोस्ट के दोस्तों कौन सा मुझे अच्छा लग रहा था मगर वक़्त था कि इजाज़त ही नहीं देता था मगर आज बहुत मिन्नतों से माना है. 

मुंबई की ज़िन्दगी में किसी भी चीज़ की कमी नहीं है और आप तकरीबन हर चीज़ खरीद भी सकते हो मगर कमबख्त वक़्त नहीं. इसी ज़िन्दगी का एक हिस्सा अब मैं भी बन गया हूँ वैसे तो ये एक बहाना ही है नहीं लिखने का लेकिन अगर सच का चश्मा पहन के देखता हूँ तो दिखता है कि लिखने के लिए कुछ ख्याल ही नहीं थे और जो ज़ेहन में आ भी रहे थे उनको लिख के कलम से गद्दारी करने की गवाही ये दिल मुझे नहीं देता था. सुबह घर से ऑफिस और शाम को ऑफिस से घर की भागमभाग नए ख्यालों को कोई शक्ल नहीं दे पा रही थी कुछ आता भी तो लोकल की भीड़ में आके खो सा जाता था. 

अब ज़िक्र लोकल का आ ही गया है तो कुछ उसके बारे में भी कहता चलूँ, मुंबई की लोकल (लोकल ट्रेन) का सफ़र जो पहली दफा करेगा वो तो तौबा तौबा करने लगेगा अरे सफ़र करना तो दूर की बात रही उसकी सिम्त देख भी ले तो चढ़ने से घबरा जायेगा और सोचेगा चलो यार बस से निकला जाये या फिर ऑटो की  सवारी कर लें. कुछ ऐसा ही शुरू में मेरे साथ भी हुआ था मगर अब तो उसका भी मज़ा आने लगा है, वो लपक के ट्रेन में चढ़ना और आपके पीछे की भीड़ अपना पूरा ज़ोर आपके ऊपर लगाके दो क़दमों को रखने लायक जगह बना देती है, अपने लिए भी, आपके लिए भी. जब सांस लेने का मन करे तो सर ऊपर उठा के वो भी ले लो लेकिन पहले तो इस रस्साकशी को देख के ही घबराहट हो जाती थी वो दरवाजे के बाहर निकली लोगों २ सतहें (अन्दर का मंज़र छोडिये), बस एक सिरा पकड़ लो और सवार हो जाओ बाकी सब कुछ गर्दी (भीड़ )कर देगी, अगर उतरना है तो गर्दी उतार भी देगी और अगर इस गर्दी का मन नहीं किया तो आप अपने स्टॉप से एक या दो स्टॉप आगे उतरोगे.

लगता है हर कोई भाग रहा है और भागे जा रहा है...........और आपको भी भागना पड़ेगा नहीं तो पीछे वाले आपको भगाते हुए अपने साथ ले चलेंगे, इतना ख्याल यहाँ सब लोग एक दुसरे का रखते हैं. इतनी भीड़ है मगर एक तन्हाई सी पसरी रहती है हर कोई इंतज़ार कर रहा होता है कि कब उसका स्टॉप आये और वो इस पिंजरे से छूट के अपनी दुनिया कि ओर उड़ चले. कोई अपने में गम है तो कोई रेडियो FM में बजते हुए गानों की धुनों में सर घुमा रहा है क्योंकि पैर को हिलाने की इजाज़त नहीं है, कोई भगवान् को याद कर रहा है (हनुमान चालीसा, बाइबिल, क़ुरान की आयतें आदि पढ़ रहा है), कोई अखबार के सहारे समाज से रूबरू हो रहा है, तो कोई ग़ज़ल सोच रहा है (मैं).........................
इसी उधेरबुन में, एक अशआर बना था जिससे अब आप सब भी रूबरू हो जाइये.

शाम सवेरे करता रहता दीवारों से पागल बातें.
मेरे कुछ आवारा साथी, तेरे ख़त औ' तेरी यादे.
जिसको देखो ख़ुद में गुम है कैसा शहर "सफ़र" ये तेरा
आदम तो लगते हैं लेकिन चलती फिरती जिंदा लाशें.

जल्द ही आता हूँ एक ग़ज़ल के साथ...................अरे सच कह रहा हूँ इस बार ये जल्दी एक महीने से पहले आ जाएगी.

29 January 2010

ग़ज़ल - चलो फिर से जी लें शरारत पुरानी

वैसे आज जिस ग़ज़ल से आप मुखातिब हो रहे हैं वो आपके लिए नयी नहीं है, गुरु जी के ब्लॉग पे चल रहे तरही मुशायेरे में आप इससे रूबरू भी हो चुके होंगे मगर इसमें एक नया शेर है जिससे इस पोस्ट को लगाने का छोटा सा कारन मिल गया. इस ग़ज़ल का आखिरी शेर नया है.

जो लोरी सुना माँ ज़रा थपथपाये
दबे पाँव निंदिया उन आँखों में आये

चलो फिर से जी लें शरारत पुरानी
बहुत दिन हुए अब तो अमिया चुराये

खिंची कुछ लकीरों से आगे निकल तू
नयी एक दुनिया है तुझको बुलाये

मुझे जानते हैं यहाँ रहने वाले
तभी तो ये पत्थर मिरी ओर आये

किया जो भी उसका यूँ एहसां जता के
तू नज़दीक आकर बहुत दूर जाये

मैं उनमे कहीं ज़िन्दगी ढूँढता हूँ
वो लम्हें तिरे साथ थे जो बिताये

खुली जब मुड़ी पेज यादें लगा यूँ
के तस्वीर कोई पुरानी दिखाये 

दुआओं में शामिल है ये हर किसी के
नया साल जीवन में सुख ले के आये

मैं आँखें मिला जग से सच ही लिखूं माँ
मेरी सोच मेरी कलम भी बताये

ग़ज़ल टहनियों पे नयी सोच खिल के
ख़यालों के पतझर से उनको बचाये 

[त्रैमासिक 'नई ग़ज़ल' के अक्टूबर-दिसम्बर 2011 अंक में प्रकाशित]



21 January 2010

ग़ज़ल - मैं पंछी हूं मुहब्‍बत का, फ़क़त रिश्‍तों का प्‍यासा हूं

ऐसा लग रहा है कि ब्लॉग पे पोस्ट किये हुए एक अरसा हो गया है, काफी दिन हो गए थे और ब्लॉग पे कोई पोस्ट नहीं लिखी थी. कुछ व्यस्तता कहूं या नेट कि निर्धारित सीमायें मगर जो भी हो.......... भोपाल जाना और सीहोर जाके गुरु जी का साक्षात् सानिध्य पाकर अगर ख़ुद को खुशनसीब ना कहूं तो आप सब से बेमानी होगी.

सीखने को बहुत कुछ मिला क्योंकि सिखाने वाले के पास ज्ञान का अथाह भण्डार है, केवल ग़ज़ल ही नहीं तकरीबन जो भी मुद्दे बंद पोटली से बाहर आये तो वापिस संतुष्ट होकर ही गए. हर वो बीता हुआ पल मेरे सामने जिंदा हो उठता है जब मैं आँखें मूँद के थोड़ी देर यादों के आँगन में चहलकदमी के लिए निकल पड़ता हूँ...............

गुरु जी द्वारा कहा गया हर लफ्ज़, हर वाक्य या फिर कुछ भी बहुत कुछ सिखा गया एक बात जो इनकी मैं गाँठ बाँध के सदैव अपने पास रखूँगा और चाहूँगा कि आप भी उसका अनुसरण करें. वो है...........
"एक अच्छा इंसान ही एक अच्छा लेखक/शायर हो सकता है इसलिए पहले अच्छा इंसान बनना ज़रूरी है."
यादों को समेट के लिखना मुश्किल लग रहा है इसलिए कुछ चित्र छोड़ जा रहा हूँ...........
 (कांकरहेरा  में)
 
 (सनी, सोनू, गुरु जी और सुधीर)
आज जिस ग़ज़ल से आप सब को रूबरू करवा रहा हूँ ये थोड़ी पुरानी ग़ज़ल है, बहरे हजज की इस ग़ज़ल पे बहुत लिखा गया है.

१२२२-१२२२-१२२२-१२२२
कभी झूठा समझता है कभी सच्चा समझता है.
ये उसके मन पे छोड़ा है, जो वो अच्‍छा समझता है.
  
मैं पंछी हूं मुहब्‍बत का, फ़क़त रिश्‍तों का प्‍यासा हूं
ना सागर ही मुझे समझे ना ही सहरा समझता है.

उसी कानून के फिर पास क्‍यों आते हैं सब जिसको
कोई अँधा समझता है कोई गूंगा समझता है.

जो जैसे बात को समझे उसे वैसे ही समझाओ
शराफ़त का यहां पर कौन अब लहजा समझता है.

मुसाफिर हैं नए सारे सफ़र में ज़िंदगानी के
यहाँ कोई नहीं ऐसा जो ये रस्ता समझता है.