15 July 2010

ग़ज़ल - मेघों की साहूकारी में सिर्फ बहाने मिलते हैं

तक़रीबन एक महिना होने को आ गया है और ब्लॉग ख़ामोशी ओढ़ के बैठा हुआ था मगर कर भी क्या सकते हैं, थोड़ी व्यस्तता ही रही या कहूं पूरी व्यस्तता रही और वक़्त ही नहीं मिल पा रहा था. इस बेबसी के आलम में लगता था कि ब्लॉग कहीं बेकग्राउंड  में "दिल ढूँढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन.........." गाना बजा रहा है और बुला रहा है। 
(चित्र:- सागर, मध्य प्रदेश)

चलिए इस वक़्त की कंजूसी को बाय-बाय कहते हुए हाज़िर हूँ एक ताज़ा ग़ज़ल के साथ, गुरुदेव पंकज सुबीर जी द्वारा इस्लाह की गयी ये ग़ज़ल अब आपके रूबरू है। 

ख़्वाबों में माज़ी के कुछ धुंधलें अफ़साने मिलते हैं
छाँव तले पीपल की बैठे लोग सयाने मिलते हैं

प्यासी धरती माँग रही कब से थोड़ी बारिश लेकिन
मेघों की साहूकारी में सिर्फ़ बहाने मिलते हैं

दूर नदी परबत की बाहों में उमड़े तो लगता है
दुनिया की नज़रों से छिपकर दो दीवाने मिलते हैं

अंगड़ाई जब भी लेते बीते लम्हें बेचैनी में
फूल तुम्हारी यादों के मुझको सिरहाने मिलते हैं

बड़े बुजुर्गों की बातें लगती हैं पीर फ़क़ीरों सी,
उनकी संगत में बैठो तो छिपे ख़ज़ाने मिलते हैं

वक़्त बदल देता है चेहरे और इन्सां की नीयत भी 
कसमों-वादों की गलियों में अब वीराने मिलते हैं 

[त्रैमासिक 'नई ग़ज़ल' के जुलाई-सितम्बर 2011 अंक में प्रकाशित]