26 May 2010

ग़ज़ल - ये तजुर्बे जीतने के, हार को छूकर हैं निकलें

बात कहाँ से शुरू करूं?
अरे आपने वीनस की ये पोस्ट "मेरा 'मैं' और हमारा 'सफ़र'" पढ़ी या नहीं, सच कहा है वीनस ने और बहुत आसान लफ़्ज़ों में एक धारा प्रवाह के साथ, हम में से अधिकतर की, खासकर मेरी तो शुरूआती कहानी बयाँ कर ही दी है.

तालाब से, हाँ तालाब से ही हम में से अधिकतर लोगों ने शुरुआत की है, अगर सीधे ही नदी में कूद पड़ते तो कहीं खो चुके होते, इसलिए छोटी छोटी डुबकियाँ ज़रूरी है और जब सांस रोक के पानी के अन्दर कुछ देर रहना और थोडा बहुत तैरना आ जाता है तो आगे का सफ़र शुरू होता है. ग़ज़ल की नदी में पहुंचकर पहलेपहल कुछ नया सा तो ज़रूर लगता है, मगर जब साथ में तैरते हुए कुछ और भी दिखते हैं तो थोडा हौसला बढता हैं, और जब पथ प्रदर्शक का हाथ सर पे रहता है तो इस प्रवाहमान धारा के साथ सभी चल पड़ते हैं एक सफ़र में, ग़ज़ल के सफ़र में..........कुछ नया सीखने के लिए, कुछ नया सुनने के लिए और कुछ नया कहने के लिए.
अभी कहने की बारी है तो हाज़िर हूँ एक नयी ग़ज़ल के साथ जो गुरु जी (पंकज सुबीर जी) से आशीर्वाद प्राप्त है.

बहरे रमल मुरब्बा सालिम (२१२२-२१२२)

इक कसम लेकर हैं निकलें.
चूमने अम्बर हैं निकलें.

वक़्त ने परखा बहुत है,
वक़्त से छनकर हैं निकलें.

ये तजुर्बे जीतने के,
हार को छूकर हैं निकलें.

आज तुम से मिल के दिल से,
अजनबी कुछ डर हैं निकलें.

कीमतें पहले बढ़ी कुछ,
बाद में ऑफर हैं निकलें.

कुछ चुनिन्दा लोग ही बस,
मील के पत्थर हैं निकलें.

11 comments:

SANJEEV RANA said...

क्या खूब कहा आपने
www.sanrana.blogspot.com

kshama said...

Jinhen zindagi kaa tajruba hua hai,wahi log aisi rachna qalam baddh kar sakte hain !

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर रचना!

योगेन्द्र मौदगिल said...

Bahut Khoobsurat....Wah...Wahwa...

वीनस केसरी said...

अंकित भाई

आज सुबह जब आपकी गजल पढ़ी तो अनायास अर्श भाई का एक शेर याद आ गया की...

मेरी बुलंदियों से रश्क कर तू भी
मैं ठोकर में आसमान रखता हूँ

अंकित भाई आपकी बुलंदियां काबिले रश्क है
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अब सच सुनिए
आपकी गजल पढ़ कर मै जल भून कर राख हो गया हूँ :)

दिगम्बर नासवा said...

वक़्त ने परखा बहुत है .... सच है आपकी जिन्ददिल ग़ज़ल वक़्त के साँचे में ड्ल कर तपी हुई नज़र आती है .... कमाल की ग़ज़ल ...

"अर्श" said...

सच अंकित इस खुबसूरत ग़ज़ल के लिए जीतनी दाद दूँ , वो कम है गुरु जी भी मन से तुम्हे आशीर्वाद दे रहे होंगे ... मतला क्या खुबसूरत बना है मियाँ , कमाल ही है ये ,.. सच में ये मतला मुशायरे में पढने लायक है मेरे समझ से ....और दूसरा शे'र खुद में काबिले डैड है... हर शे'र दिलकश है भाई दिल से करोडो दाद कुबूल करो... फिर से आता हूँ लुत्फ़ ले ने के लिए ...
बधाई ...

अर्श

"अर्श" said...

डैड की जगह दाद पढ़ें

अभिन्न said...

अंकित भाई प्रथम बार आपके ब्लॉग पर आया,अर्श भाई ओर गौतम राजरिशी जी को तो पढते ही रहते हैं,किसी भी तरह से आपकी रचना उन से कम नहीं लगी
ये तुजर्बे जीतने के,
हार को छूकर हैं निकले
....वाह क्या बात है भाई

Pawan Kumar said...

ये तजुर्बे जीतने के

हार को छू कर हैं निकले......

भाई वाह.....इस बहर पर क्या खूब शेर निकाले हैं मियां.....कितनी दाद दूं ......कुछ भी कह लूं, कम ही रहेगा......ग़ज़ल में 'ऑफर' का इस्तेमाल गज़ब ढा रहा है.....!

Rajeev Bharol said...

अंकित भाई,
आप बहुत अच्छा लिखते हैं. बहुत ही अच्छा.