ये ग़ज़ल वैसे तो गुरु जी के ब्लॉग पर, दीपावली के तरही मुशायरे में अपनी हाजिरी लगा चुकी है, क्योंकि कुछ व्यस्तता के कारण नयी ग़ज़ल कहने में थोडा वक़्त लगेगा लेकिन ब्लॉग का सफ़र भी चलता रहना चाहिए इसलिए ये ग़ज़ल आज फिर से आप सभी से गुफ्तगू करने के लिए हाजिर है.
चित्र:- निखिल कुंवर
फितरत तेरी पहचानना आसां नहीं है आदमी
मतलब जुडी हर बात में तू घोलता है चाशनी
मतलब जुडी हर बात में तू घोलता है चाशनी
तुम उस नज़र का ख्वाब हो जो रौशनी से दूर है
एहसास जिसकी शक्ल है, आवाज़ है मौजूदगी
एहसास जिसकी शक्ल है, आवाज़ है मौजूदगी
माज़ी शजर के भेष में देता मुझे है छाँव जब
पत्ते गिरे हैं याद के जो शाख कोई हिल गयी
मासूम से दो हाथ हैं थामे कटोरा भूख का
मैंने किसी की आँख में देखा तुझे ऐ ज़िन्दगी
हालात भी करवट बदल कर हो गए जब बेवफा
चुपचाप वो भी हो गयी फिर घुंघरुओं की बंदिनी
मैंने किसी की आँख में देखा तुझे ऐ ज़िन्दगी
हालात भी करवट बदल कर हो गए जब बेवफा
चुपचाप वो भी हो गयी फिर घुंघरुओं की बंदिनी
लाये अमावस रात से उम्मीद की जो ये सहर
"जलते रहें दीपक सदा, क़ायम रहे ये रौशनी"
क्यों बेवजह उलझे रहें हम-तुम सवालों में "सफ़र"
जब दरमयां हर बात है आकर भरोसे पर टिकी
बहर:- रजज (२२१२-२२१२-२२१२-२२१२)
"जलते रहें दीपक सदा, क़ायम रहे ये रौशनी"
क्यों बेवजह उलझे रहें हम-तुम सवालों में "सफ़र"
जब दरमयां हर बात है आकर भरोसे पर टिकी
बहर:- रजज (२२१२-२२१२-२२१२-२२१२)