यूँ तो हर दिन, महिना, साल अपने में कुछ ख़ास छिपाए रखता है और अपने हिस्से की कहानी का वो पहला गवाह व वजूद भी खुद ही होता है. लेकिन जब बात सन १९७५ की निकलती है तो कुछ बातें जिनकी जुगलबन्धी मेरे ज़ेहन से हो गई हैं, अचानक ही सांस लेने लगती हैं. उनमे से एक हिस्सा फिल्मों ने कब्ज़ा रखा है (शोले, आंधी और शोले की आंधी में जो माँ के चमत्कार से हिट हो पाई, जय संतोषी माँ सिर्फ यही तीनों याद आती हैं). अब इससे आगे बढ़ के साल और महीनो से फिसलकर अगर दिनों की ओर चलूँ तो १९७५ का एक दिन पहेली सा सामने आ कर खड़ा हो जाता है. वो है १५-५-७५ (पंद्रह पांच पिचहत्तर)? न जाने इस दिन में ऐसा क्या छिपा हुआ है जिससे गुलज़ार ने इसे अपनी नज्मों के ठिकाने का पता दे दिया. और पिछले तीन-एक सालों से मुझ से जुड़ा इसी १९७५ का एक और बहुत ही ख़ास दिन है ११-१०-१९७५ जो मेरी अधिकतर अबूझ और उटपटांग पहेलियों और ग़ज़लों की गुत्थमगुत्था का जवाब बन गया है. वो दिन है, मेरे श्रद्धेय गुरुवर पंकज सुबीर जी का जन्मदिन.
ऐसा क्या ख़ास है ११ अक्टूबर १९७५ में, वैसे कुछ भी तो नहीं, है तो बस ये ही कि आम दिनों से दिखने वाले इस दिन को आज से ३६ बरस पहले जन्मे पंकज पुरोहित नाम के शख्स ने, माँ सरस्वती के आशीर्वाद और अपनी कलम की धार से पंकज सुबीर के जन्मदिन के रूप में चिन्हित करवा दिया है.
अपनी कहानियों से पाठकों को, रचनाशीलता के सागर में गोते लगवाने वाले पंकज जी की पंकज पुरोहित से पंकज 'सुबीर' बनने की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है. पूरी कहानी कह पाना तो मेरे बूते की बात नहीं है, हाँ मगर उस कहानी से एक हिस्सा जो "सुबीर" तख्खलुस से जुड़ा हुआ है, आप सभी को बताता चलूँ.
बात तब की है, जब लेखनी ने रफ़्तार पकड़ ली थी, और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन शुरू हो चुका था. लेखक के नाम के रूप में अब भी नाम पंकज पुरोहित ही जा रहा था. रचनाएं, हिंदी साहित्य में अपना स्थान बना रही थी और साथ-साथ पाठकों द्वारा भी सराही जा रहीं थी. मगर, पाठकों के अधिकतर शुभकामना व बधाई पत्र, सीहोर के पंकज पुरोहित को नहीं वरन पंकज पुरोहित नाम से ही रचनाओं का सृजन कर रहे, एक दूसरे शख्स के पास पहुँच रहे थे. एक ही नाम और एक ही काम की ये विचित्रत्त्ता भी अनूठी थी. मगर, इस उलझन को सुलझाने का उपाय क्या?
(घुग्घू कहानी तो आपने पढ़ी होगी, ऐसे ही एक घुग्घू की तलाश में)
एक विचार ये सूझा कि पंकज पुरोहित में से सिर्फ पंकज नाम से ही आगे बढ़ा जाए लेकिन दूजे ही पल ये विचार कौंधा अगर पंकज पुरोहित नाम का कोई और भी शख्स हो सकता है तो पंकज नाम के साथ तो इसकी संभावनाएं और भी बढ़ जायेंगी! फिर इस बात का ये निष्कर्ष निकला कि वक़्त आ चुका है कि पंकज नाम में एक तख्खलुस जोड़ा जाए, लेकिन फिर वही यक्ष प्रश्न कि वो तख्खलुस अगर हो तो आखिर क्या हो, जो कम से कम किसी के नाम से आसानी से न मिलें और खासकर साहित्य में तो नहीं ही.
ये अगर-मगर की स्थिति उन्होंने एक दिन अपने बचपन के दिनों के मित्र के सामने रखी, तो मित्र हँस के बोला चलो अच्छा हुआ कि मैं इस स्थिति में आज तक नहीं फँसा. इस बात पर सवाल उठा कि भाई क्यों, आखिर ऐसा क्या है तुम्हारे नाम में! तो मित्र बोला, ये बात तो मैं भी नहीं जानता, हाँ लेकिन मुझे आज तक मेरे नाम से मिलता कोई दूसरा शख्स नहीं मिला. चाहे तो तुम भी ढूंढ के देख लो, मिल जाए तो मुझे भी बताना. बात आई-गई होते-होते रह गई. वाकई कुछ दिनों की माथा-पच्ची के बाद भी दोस्त के नाम से मिलता खोजे न खोजते कोई शख्स न मिला. अगली मुलाकात में उस मित्र से बोले कि वाकई तेरे नाम से मिलता कोई दूसरा नाम नहीं मिला और इसी बीच मेरी भी तख्खलुस की तलाश पूरी हुई, मुझे अपना तख्खलुस मिल गया है. मित्र ने कहा ये तो बहुत अच्छा हुआ, वैसे तुने तख्खलुस क्या रखा है? तो जवाब आया, तेरे नाम से बेहतर और क्या मिलता इसलिए मित्र सुबीर तेरे ही नाम को अपना तख्खलुस "सुबीर" बना लिया है. अब ये बता, पंकज 'सुबीर' जँच रहा है न!
अरे जाते-जाते याद आया आज तो फिल्मों के शहंशाह का भी जन्मदिन है. चलते-चलते, "सदी के महानायक उर्फ़ कूल-कूल तेल के सेल्समैन" को भी जन्मदिन की शुभकामनाएं.
10 comments:
ये हुई न बात।
GREAT IDEAS do not need much efforts. Efforts have already gone into getting the idea.
:):)अच्छा समा बाँधा अंकित...
क्या बात है!!!
वाह वा,,
दिल लूट लिया
जिंदाबाद
जिंदाबाद
जिंदाबाद
जिंदाबाद
क्या बात है, क्या बात है, क्या बात है .....
जिंदाबाद
जिंदाबाद
जिंदाबाद
जिंदाबाद
जिंदाबाद
जिंदाबाद
जिंदाबाद
जिंदाबाद
पंकज के पीछू की ये स्टोरी मस्त है...बोले तो झकास...ये असली वाला सुबीर कुछ करता भी है या अपना नामिच बांटता फिरता है? वैसे सन "१९७५" अपुन की लाइफ में भी कुछ खास है भिडू इसी साल अपुन एक से दो हुआ...समझा क्या ? लाइफ में सेटल हो गया रे...सेटल बोले तो अपुन का लगन रे भिडू...पंकज उस्ताद को अपुन का सलाम भी बोलने का ...क्या?
नीरज
वाह्ह्ह!!! बड़े ही रोचक अंदाज़ में अपनी शुभकामनाएं दीं अंकित..
@नीरज सर.. और मुझे लगा था कि १९७५ में आप दो से एक हुए.. :)
कल शाम मे जो समाँ बंधा था उसके खुमार मे अब भी डूबा हुआ हूँ... गुरुवर को फिर से जन्म दिन की ढेरो बधाई !
सुबीर साहब को जन्मदिन की हार्दिक बधाई... उनके जैसे युवाओं का लेखन में आन जरूरी है क्योंकि उन जैसे युवा रचनाकारों पर हिंदी साहित्य का भविष्य टिका है. ईश्वर उन्हें लम्बी उम्र दे. उनके विषय में लिखने का शुक्रिया !!
अच्छे लिक्खाड़ हो गए हो तुम भी छोटू....अब गद्य पे भी ध्यान दो थोड़ा.....
मजा आ गया पढ़ कर
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