हम अपनी जड़ों से कितना भी दूर चले जाएँ, लेकिन हमारी जड़ें हमसे अलग नहीं होती. वो हरदम हमारे साथ रहती हैं, चाहे वो यादों में रहें या हमारे रहन-सहन या बोल-चाल में रहें. ये नए-नए उगते शहर भी कभी गाँव की शक्ल में रहे होंगे, फिर कस्बे बने होंगे, और अब शहर का रुतबा लेकर इठला रहे हैं. धीरे-धीरे सब बदल रहा है, विकास अपने दायरें बढ़ा रहा है, हर कोई उससे कदम-ताल करके उसके साथ चल रहा है या चलने की कोशिश तो कर ही रहा है.
हम में से कई या कहूं अधिकतर अपने गाँव/कस्बे/शहर से दूर इस विकास से जुड़े हैं या जुड़ रहे हैं, मगर हमारे साथ अपनी एक अलग ही मिठास लिए हमारा एक सुनहरा बीता हुआ कल भी हम से जुड़ा हुआ है .
गाँव (सौनी, रानीखेत, उत्तराखंड) का पुराना मकान। वैसे तो अब नया मकान बन गया है
मगर पुराना अभी भी यादों के सहारे अपनी जगह मजबूती से कायम है.
चलिए इन बातों के गुच्छों से निकल कर कुछ इन्ही हालातों से मिलती-जुलती, इनकी याद दिलाती एक ग़ज़ल कहता हूँ. ये ग़ज़ल गुरुदेव 'पंकज सुबीर जी' के ब्लॉग पे चल रहे तरही मुशायरे में दिए गए एक मिसरे पे कही गई है, इसका आखिरी शेर सीहोर, मध्य प्रदेश के सुकवि रमेश हठीला जी को समर्पित है.
घर की मुखिया बूढी लाठी है अभी तक गाँव में
तज्रिबों की क़द्र बाकी है अभी तक गाँव में
तज्रिबों की क़द्र बाकी है अभी तक गाँव में
सरपरस्ती में बुजुर्गों की सलाहें हैं छिपी
राय, मुद्दों पर सयानी है अभी तक गाँव में
खेत की उथली सी पगडण्डी को थामे चल रही
खेत की उथली सी पगडण्डी को थामे चल रही
बैलगाड़ी की सवारी है अभी तक गाँव में
दिन ढले चौपाल पर यारों की नुक्कड़, बैठ कर
दिन ढले चौपाल पर यारों की नुक्कड़, बैठ कर
रात के परदे गिराती है अभी तक गाँव में
क्या मुहब्बत भी किसी फरमान की मोहताज है?
क्या मुहब्बत भी किसी फरमान की मोहताज है?
फैसले ये 'खाप' देती है अभी तक गाँव में
शहर में कब तक जियेगा यूँ दिहाड़ी ज़िन्दगी
शहर में कब तक जियेगा यूँ दिहाड़ी ज़िन्दगी
लौट जा घर, दाल-रोटी है अभी तक गाँव में
फूल की खुश्बू ने लांघे दायरे हैं गाँव के
फूल की खुश्बू ने लांघे दायरे हैं गाँव के
पर बगीचे का वो माली है अभी तक गाँव में
मेरे बचपन की कई यादों के दस्तावेज़ सा
मेरे बचपन की कई यादों के दस्तावेज़ सा
इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में
आ चलें फिर गाँव को, रिश्तों का लेने ज़ायका
आ चलें फिर गाँव को, रिश्तों का लेने ज़ायका
एक चूल्हा, एक थाली है अभी तक गाँव में
सुकवि रमेश हठीला जी को समर्पित शेर,
सुकवि रमेश हठीला जी को समर्पित शेर,
ज़िन्दगी की शाख पे फिर फूल बन कर लौट आ
तेरे जाने की उदासी है अभी तक गाँव में
तेरे जाने की उदासी है अभी तक गाँव में
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7 comments:
गुरुदेव ने अभी नई पोस्ट में लिखा है कि
"कभी कभी एक मिसरा ही ऐसा हो जाता है कि पूरी ग़ज़ल उसके सामने फीकी हो जाती है ।"
तो भाई यही बात आपके इस शेर के लिए भी है
ज़िन्दगी की शाख पे फिर फूल बन के लौट आ,
तेरे जाने की उदासी है अभी तक गाँव में.
इस शेर को आप द्वारा अंत में रखने का एक फायदा मुझको हुआ है
आपकी पूरी ग़ज़ल का लुत्फ़ के सका और फिर इस शेर पर पहुँच कर अटक गया ...
और ऐसा अटका कि बहुत देर तक अटका ही रहा
ज़िन्दगी की शाख पे फिर फूल बन के लौट आ,
तेरे जाने की उदासी है अभी तक गाँव में.
वाह वाह
पूरी ग़ज़ल सुन्दर है
यह शेर महान है
जिंदाबाद
ब्लॉग का नया रूप रंग प्यारा है :)
बहुत ही खूबसूरत गज़ल है..
गुरुदेव के ब्लॉग पर पढ़ कर कहा था वाह...यहाँ कह रहा हूँ वाह...वाह...खूबसूरत ग़ज़ल...
नीरज
गुरुदेव के ब्लॉग पर पढ़ कर कहा था वाह...यहाँ कह रहा हूँ वाह...वाह...खूबसूरत ग़ज़ल...
नीरज
खूबसूरत ..गज़ल तो है ही ...रानीखेत भी...नाम में ही कुछ जादू है.
सुबीर जी के तरही मुशायरे में इसे पढ़ा था। आज के गाँवों में जो कुछ अच्छा बचा रह गया है उसकी बेहतरीन झलक दिखालती है ये ग़ज़ल।
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