07 March 2013

समीक्षा - महुवा घटवारिन की छवियाँ

यह समीक्षा द्विमासिक पत्रिका "परिकथा" के जनवरी - फरवरी 2013 (वर्ष 7, अंक 42) में प्रकाशित हुई है। आप इसे यहाँ पर भी पढ़ सकते हैं।  

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कहानी संग्रह - "महुवा घटवारिन और अन्य कहानियाँ"

कहानीकार - पंकज सुबीर

सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली ने हाल में 10 कथाकारों की पुस्तकों का लोकार्पण किया था। समारोह में भारत भारद्वाज जी ने चुटकी लेते हुए कहा था कि सामयिक प्रकाशन ने हिंदी साहित्य के अन्तरिक्ष में 10 सैटेलाइट (कहानी / उपन्यास) छोड़े दिए हैं। उसी बात को आगे बढ़ाते हुए मैं ये जोड़ता हूँ कि वो सब सैटेलाइट अपनी-अपनी कक्षाओं में तो पहुँच गए हैं लेकिन अब ये देखना बाकि है कि वो अपने पाठकों से कितना अच्छे से जुड़ पाते हैं। उन्ही 10 कथाकारों में से एक कथाकार पंकज सुबीर की पुस्तक "महुवा घटवारिन और अन्य कहानियाँ" से रूबरू होने का मुझे मौका मिला। हिंदी साहित्य जगत में अपनी कहानियों और उपन्यास से पैठ बना रहे पंकज सुबीर का "ईस्ट इंडिया कंपनी" के बाद ये दूसरा कहानी संग्रह है।


कहानी संग्रह की शुरुआत होती है "सदी का महानायक उर्फ़ कूल-कूल तेल का सेल्समेन" नामक कहानी से। जहाँ तक मुझे याद पड़ता है सबसे पहले ये कहानी हंस के दिसम्बर 2011 के अंक में प्रकाशित हुई थी, और इसकी गूँज कई दिन और महीनो तक साहित्यिक हलकों में सुनी गई थी। कहानी बाजारवाद के ज़रिये हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में अतिक्रमण कर आये उत्पादों के लुभावने झांसों और उनके द्वारा किये गए वादों के दलदल में फंसते जा रहे उपभोक्ता के इनके समक्ष आत्मसमर्पण का चित्रण करती है। बाज़ार और उस में मौजूद उसके हजारों छद्म चेहरे, उपभोक्ता और उसकी सोच को धीरे-धीरे अपना ग़ुलाम बना रहे हैं और जब वो कुछ कहने या समझने की कोशिश करता है तो बाज़ार के उस बेबाक जवाब से उसका सामना होता है कि - "अब हम तय करेंगे कि तुम्हे किस चीज़ की ज़रुरत है और किसकी नहीं। अब तुम्हारा और हमारा लिंक जुड़ चूका है इसलिए अब ये सोचने की जवाबदारी हमारी हो चुकी है। हम बाज़ार हैं और तुम ख़रीदार।"

कहानी एक फंतासी के ज़रिये एक सामान्य उपभोक्ता से शुरू होती है, जो बाज़ार की चालाकियों और ब्रांड की आंधी से तो दूर है लेकिन उससे अनजान नहीं है। वो बाज़ार के चेहरों को पहचानता है और इसी पहचान को देखकर बाज़ार अपने तीन दूत (ब्रांड एम्बेसडर) उसके इर्द-गिर्द तैनात कर देता है। बाज़ार अपनी सारी रणनीतियों की व्यवस्थाएं पहले से ही करके चलता है और साथ में ये जतलाता भी चलता है कि अगर तुम ये ब्रांड नहीं खरीदोगे तो दूसरा क्या सोचेगा तुम्हारे बारे में और बस यहीं, वाकई यही पे आ के उपभोक्ता बाज़ार के सामने आत्मसमर्पण कर देता है। शुरुआत में उपभोक्ता कभी लालचवश तो कभी ट्रायल के तौर पर इन उत्पादों का भोग शुरू करता है मगर आहिस्ता से विभिन्न प्रकार के उत्पाद उसका भोग करना शुरू कर देते हैं, जो अनवरत चलता रहता है। उसकी भावनाओं और ज़रूरतों से सामंजस्य बैठाते हुए अपने उत्पाद को उसके समक्ष आख़िरी विकल्प के रूप में रख देते है। कहानीकार ने कहानी के ज़रिये बाज़ार की रणनीतियों को खोलने की कोशिश की है, कि कैसे बाज़ार पहले हमारे आदर्श व्यक्तियों का चुनाव करता है और फिर उनको सीढ़ी बना कर हम तक पहुँच जाता है। कैसे विभिन्न देशी-विदेशी कंपनियों के उत्पाद, बाज़ार में पहले से ही ठुंसे हुए उन्ही के जैसे कई उत्पादों में अपने उत्पाद को औरों से अलग रखने के लिए प्रचलित/मशहूर शख्सियत का सहारा लेते हैं। एक ऐसे चेहरे को खोज कर लाया जाता है जो खासकर दो ही जगहों से ताल्लुक रखता है और वो हैं सिनेमा और खेल। इन दोनों को भी अगर हिन्दुस्तान के अधिकतर जनमानस को ध्यान में रखकर थोडा और संकीर्ण करें तो बॉलीवुड और क्रिकेट के ये चिरपरिचित चेहरे ही इस लूटपाट में अग्रणी दिखाई देते हैं।


अक्सर उत्पादों की हमारी ज़िन्दगी में दखलंदाज़ी ज़्यादातर समय हमारे दोस्तों और करीबीजनों से ही होती है। इसे कहानी में आये इस सन्दर्भ से अच्छे से समझा जा सकता है कि जब कहानी का किरदार अपनी प्रेमिका के साथ पार्क में बैठ कर पॉपकॉर्न खा कर ख़त्म करता है तो उसके बाद उसकी प्रेमिका उससे कोल्ड ड्रिंक पिलवाने की मांग करती है, और उसको अपने तर्कों से समझाने की कोशिशों से हारकर वो उसकी ज़िद पूरी करता है। इन बातों और रणनीतियों का सार लेखक इन पंक्तियों में कहता है - "बाज़ार ने धीरे-धीरे उन सारी कहावतों और मुहावरों के अर्थ सीख लिए हैं, जो प्यार से जुडी हुई हैं।" बाज़ार के नए उत्पाद कैसे पहले से प्रचलित उत्पादों को ख़त्म करते हैं इसकी बानगी भी इस कहानी में अच्छे से समझी जा सकती है जब युवक अपनी प्रेमिका के कोल्ड ड्रिंक पीने की ज़िद के सामने 'गन्ने के रस' का सुझाव रखता है तो प्रेमिका का जवाब पाता कि 'गन्ने का रस' अनहायजेनिक होता है और कोल्ड ड्रिंक में कुछ होए ना होए लेकिन उसमे थ्रिल और सेंसेशन तो होता ही है। कोल्ड ड्रिंक के उन बनते-फूटते बुलबुलों में युवक का अपनी प्रेमिका के सामने समर्पण बाज़ार की अट्टाहस के सामने गुम हो जाता है। बाज़ार का हमारे इर्द-गिर्द बनता ताना-बाना बाज़ार के मुताबिक ही बनता है जो वक़्त के साथ-साथ हम पर इस कदर हावी हो जाता है कि फिर उसके बाद हमारा स्वरुप उसके सामने नगण्य हो जाता है और उसे जो नज़र आता है तो सिर्फ हमारा शरीर। बाज़ार हमारी जेब को देखकर अपने को उसी अंदाज़ में पेश करता है जिस से उसे अपनाने से हम बच नहीं पाते हैं, और दूसरे के बराबर अपने स्टेटस को पहुंचाने की होड़ में लग जाते है। कहानी में आई इन पंक्तियों को देखिये - "कच्छे में घूमना कोई शर्म की बात नहीं है बस कच्छा ब्रांडेड होना चाहिए। और अगर कच्छे में ना भी घूम पाओ तो कम से कम पैंट  को इतना नीचे खिसका कर पहनो कि  तुम्हारी चड्डी का ब्रांड दिखाई दे। ये केवल चड्डी नहीं है, ये तुम्हारा स्टेटस है, समझे।"


लेखक ने इस कहानी के ज़रिये बाजारवाद की उन तमाम चालाकियों को परत दर परत खोलने की कोशिश की है और ये बतलाने की भी कि ब्रांड बाज़ार इन्ही सब उत्पादों की वो अंधी सुरंग है जिसकी शुरुआत में कोई एक ब्रांड आपका हाथ पकड़कर आपको एक नए सवेरे का लालच लेकर इसमें दाख़िल होता है और उस सवेरे तक पहुँचने वाले रास्ते में बस हाथ थामने वालों की अदला-बदली होती रहती है मगर बाहर का रास्ता नहीं मिलता। कहानी बाज़ार के उस पक्ष को प्रमुखता से खोलती है जहाँ हम अपने आदर्शों के चेहरे देखकर अपनी राय कायम कर लेते हैं चाहे वो नायक हो या फिर स्वयं सदी के महानायक हों। और वो सब मात्र अपनी उपस्थिति भर से ही हमारे मन:स्थिति पर कब्ज़ा कर लेते हैं - "ये जो हमारा चेहरा है, इसे देखो और खरीदो। तुम सामान को नहीं खरीद रहे, हमारे चेहरे को खरीद रहे हो, सदी के महानायक के चेहरे को खरीद रहे हो।" कहानी के आखिरी में 'सदी के महानायक' का आगमन पूरी कहानी में एक कैमियो न होकर गर्म लोहे पर पड़ने वाले आखिरी हथोड़े के वार का काम करता है, जहाँ स्वयं उपभोक्ता के महानतम आदर्श उसके सर पर तेल की चम्पी करने के लिए आतुर हैं। कहानी बाज़ार के कई कोनों को टटोल कर आगे बढती है और उसे एक फंतासी के सहारे अच्छे से सामने लाती है। कहानी के शीर्षक का आखिरी भाग 'कूल-कूल तेल का सेल्समेन' कहानी के शुरू में बनाये गए बाजारवाद के रहस्य को थोडा-थोडा पहले ही खोल के सामने रख देता है, और उसका अंत तकरीबन तय कर देता है जो इस कहानी की एक बड़ी कमजोरी है।

कहानी संग्रह की दूसरी कहानी "चौथमल मास्साब और पूस की रात" है।   कहानी की शुरुआत सिर्फ नाम के चौथमल मास्साब से शुरू हो कर फ्लैशबैक में जाती है और पाठकों को नाम एवं काम के चौथमल मास्साब से मिलवाती है। एक शब्द जिसका कहानी में आना कहानी में बारम्बार स्पंदन पैदा करता रहता है और रसिक पाठकों को मन ही मन में गोते लगवाने का काम भी करता रहता है, वो है 'वगैरह'। इस कहानी का केंद्र बिंदु 'वगैरह' शब्द ही है जो चौथमल मास्साब को अपने मोहपाश में लेकर पूस की उस रात को रच देता है, जिसके ज़रिये लेखक ने मानव मन के उन अँधेरे रास्तों से गुजरने की कोशिश की है। कहानी में अश्लीलता परोसने की तमाम संभावनाओं के बीच लेखक उन 'वगैरह' जगहों को सिर्फ छू के गुज़र जाता है और कहानी के घटना-क्रम में आने वाले उन 'वगैरह' पलों को पाठक के मन ही मन में चित्रण करने के हुनर पर भरोसा कर आगे बढ़ जाता है।
कहानी के केंद्र में दो प्रमुख किरदार हैं एक तो स्वयं चौथमल मास्साब हैं और दूसरी हैं रामचंदर की घरवाली। दोनों ही किरदार बड़ी तन्मयता से रचे गए हैं। कहानी कवि मास्साब के काव्य पाठ के मंच से सिर्फ चार कदम की दूरी रह जाने के दर्द को कुशलता से परोसती है। इसके अलावा कहानी जिस पूस की रात से हो कर गुज़रती है उससे जान पड़ता है कि वो तकरीबन 70-80 के दशक की बात है और उसका परिवेश रामचंदर की घरवाली के संवादों के ज़रिये गाँव की बोली को भी प्रासंगिक करता है। जहाँ लेखक ने रामचंदर की घरवाली के संवादों में ठेठ गाँव की बोली का प्रयोग किया है वहीँ मास्साब और दृश्यों के संवादों को सहज और सरल रखा है। शहरीकरण के इस दौर में जिस प्रकार से आम पाठक वर्ग देशज शब्दों, बोलियों और परिस्थितियों से धीरे-धीरे दूर होता जा रहा है उसको मद्देनज़र रखते हुए लेखक का कहानी के साथ-साथ उस वक़्त की कई चीज़ों को समझाते हुए चलना उस दूर होते हुए पाठक को उस बिसरी संस्कृति और समाज के पास लाता भी दिखाई देता है और कहानी को भी उसके देशकाल और वातावरण से जोड़ने में भी सफल होता है। कहानी नया ज्ञानोदय के वर्ष 2010 में आये युवा विशेषांक में प्रकाशित हो चुकी है और सहज और रसमयी रवानगी के कारण अपने समय की चर्चित कहानी है और इसमें भी कोई दोराय नहीं है कि आने वाले समय में  पंकज सुबीर की याद रखे जाने वाली कहानियों में से एक होगी। इस कहानी के बारे में कुछ न कहकर अगर सिर्फ इतना भर ही कह दिया जाये तो काफी होगा कि ये मुँह में रखी गुड की उस छोटी से ढेली के जैसी है जो धीरे-धीरे घुलती है और पढ़ने वाले को रस और मिठास से सरोबार कर देती है। निर्मल आनंद से भरपूर चौथमल मास्साब की कहानी, हिंदी साहित्य के उस दौर की ओर खींचती है जब वो मेलोडी से समृद्ध था।

"अपने घर में चार मजबूत खूटियों को ठोंको दीवार में, एक पर सिद्धांतों को, एक पर संस्कारों को, एक और मूल्यों को और चौथी पर मर्यादा को टांग दो। टांगना हमेशा के लिए, और फिर उतरना इस कीचड़ में।" कहानी संग्रह की अगली और तीसरी कहानी "मिस्टर इंडिया" धीरेन्द्र सर के इस संवाद से शुरू होती है जो प्रदुमन के आने वाले सफ़र से पहले ही उसके मन से लगने वाले उस दाग़ के डर को निकाल देना चाहते हैं जो बाज़ारवाद की ओर बढ़ती उस गली में चौतरफा है, जहाँ से होकर प्रदुमन को गुज़रना है और मिस्टर इण्डिया बनने तक का रास्ता तय करना है कहानी अपने साथ कई चीज़ों को लेकर आगे बढती है, एक ओर जहाँ बाज़ार का बिछाया हुआ जाल है तो दूसरी ओर रातों-रात सफलता पाने के लिए हर कीमत देने को तैयार बैठा आदमी है और तीसरी तरफ़ इस त्रिभुज को जोड़ते दौलत के जागीरदार हैं, जो अपनी ज़रूरतों के मुताबिक इस त्रिभुज की दोनों भुजाओं के कोण बदलते रहते हैं। लेखक धीरेन्द्र सर के ज़रिये अपना चिंतन व्यक्त करते हुए कहता है कि शरीर और विचार की जंग में शरीर बाज़ार का साथ पा कर विचार को बहुत पीछे छोड़ चुका है। सही मायनों में अगर देखें तो ये आज के समय की सच्चाई भी है कि आज अगर शरीर बिकने को तैयार हैं तो बाज़ार उसकी गुणवत्ता के मुताबिक उसकी मुंहमांगी कीमत भी देने को राज़ी है।
प्रदुमन का प्रदु और प्रदु से पी. डी. बनने का सफ़र रात से शुरू हो कर रात पे ही ख़त्म होता है क्योंकि जिस सुनहरे सवेरे का वो ख़्वाब लेकर चल रहा है उसको पाने का रास्ता घने अन्धकार से भरी रात से हो कर गुज़रता है। सफलता को पाने के लिए वो अपना सर्वस्व दांव पर लगाता चला जाता है क्योंकि उसे ये उसके अग्रज ने बता रक्खा है कि रातों-रात सफलता एक तीव्र प्रक्रिया है जो पूरी तरह से असहज है लेकिन आज के समय में जब बौद्धिकता, विचारों और दिमागों सबका सत्यानाश हो गया है तब सबसे कारगर प्रक्रिया यही है। लेखक ने बाज़ार के उस खौफनाक चेहरे से पर्दा उठाने की कोशिश की है, और बताया है कि समाज के केंद्र में चल रही शरीर और विचार की जंग में कैसे बाज़ार ने एक बाहरी तत्व की तरह आ कर विचार को हाशिये से भी बाहर धकेल दिया है और शरीर पर सम्पूर्ण विजय प्राप्त कर ली है और उसकी विजय का उद्घोष करती उसकी पताकाएं शरीर के हर अंग पर लहरा रही हैं। बाज़ार के एक चेहरे को "सदी का महानायक ....." में हम देख ही चुके हैं जहाँ उसका चेहरा लुभावना और आकर्षित करता है। लेकिन यहाँ पर उसका एक और चेहरा सामने आता है जो पहले से अलग है, हाँ उसमे पहले जैसी झलक है मगर वो ज्यादा खौफ़नाक है और हमें भी अपनी तरह बनाने के लिए आतुर भी है या कहें कि ये उस छलिये चेहरे की बनने की कहानी है जो आगे चलकर बाज़ार की लूटपाट और छल में सबसे अग्रणी होगा। 
कहानी संग्रह की चौथी कहानी "लाश की तरह ठंडा और मौत की तरह शांत" है। कहानी भारत के एक राज्य के शासक (मुख्यमंत्री) के द्वारा रामकथा के ज़रिये अपना महिमामंडन और राज्य की असल हक़ीक़त को रेखांकित करती है। कहानी रामकथा, जिला मुख्यालय और ग्राम तिलखिरिया के बीच घूमती है, जहाँ एक तरफ राज्य का शासक करोड़ों रुपये खर्च करके किसानों की आत्महत्याओं और राज्य की तमाम और समस्याओं का हल रामकथा का आयोजन करवा कर निकालना चाह रहा है, वही जिला मुख्यालय में पुलिस तंत्र अपनी जिम्मेदारियों को छोड़ रामकथा का रसास्वादन कर रहा है या सीधे तौर से कहें कि जिले में सब कुछ राम भरोसे छोड़ कर रामकथा में डंडा बजा रहा है तो वही इन सबसे दूर ग्राम तिलखिरिया का प्रशांत अपहरणकर्ताओं के चंगुल में फंसा अपनी ज़िन्दगी और मौत के बीच चालीस लाख रूपए की फिरौती की आस जोहते-जोहते बहुत बेरहमी से क़त्ल कर दिया जाता है। "बहुत सौभाग्यशाली होती है वो प्रजा, जिसका शासक, जिसका राजा, जिसका प्रजा पालक, जिसका प्रधान संवेदनशील होता है। और यदि इसको सच मानें तो इस पंडाल में बैठे आप सब भी सौभग्यशाली हैं।" - चाटुकारिता से भरी कथावाचक की ये पंक्तियाँ ग्राम तिलखिरिया में इसके विपरीत सच को दिखला रही हैं। कहानी आज की शासन व्यस्वस्था के उस मुखौटे लगे चेहरे को सामने लाती है, जिसे पद मिल जाने के बाद अपनी ज़िम्मेदारियों की रत्ती भर भी परवाह नहीं रहती है, हाँ बस वो उस चीज़ का ढोंग ज़रूर रचते रहता है, कभी धर्म का लबादा ओढ़ कर तो कभी झूठे वादों की आड़ लेकर। साथ ही साथ शासनाधीन पुलिस भी अपने कार्य को छोड़ शासक की जी-हुजूरी में लगी रहती है, और अपनी कमज़ोरियों को छिपाना तो उसे बाखूबी आता ही है। 

मुख्यमंत्री की रामकथा अपने आपको सिर्फ राज्याभिषेक तक ही सीमित रखती है, क्योंकि स्वयं मुख्यमंत्री ने राज्य पर विजय प्राप्त करने के लिए जिन तमाम वादों का पुल बनाया था वो उनको राज्याभिषेक तक तो खींच ही लाया है। सम्पूर्ण रामकथा की बात करें तो रामराज्य तो राज्याभिषेक के बाद ही शुरू होता है और मुख्यमंत्री जी के राज-काज की बानगी, राजधानी के करीब बसे शहर में प्रशांत के अपहरण और उसके बाद उसकी हत्या हो जाने से अच्छे से मिल जाती है। कहानी शासन के रचे तंत्र को खोलने में सफल होती है, लेकिन कहानी के रूप में ये प्रस्तुति कभी-कभी किसी समाचार पत्र या न्यूज़ चैनल की विस्तृत रिपोर्ट जैसी भी लगती है। इसका शीर्षक इसकी पुख्तगी भी करता है, जो स्वयं में बेहद कमज़ोर है जो लेखक के द्वारा सिर्फ शीर्षक रखने के नाम पर रख दिया गया मालूम पड़ता है। ये कहानी इस कहानी संग्रह की एक कमज़ोर कड़ी है।
"हांजी, वो आसमान पर घूमता गैस का गोल शनि गृह, सूरज के चारों तरफ घूमना छोड़कर आपकी मोटरसाइकिल के पीछे ही लग जाएगा। दुनिया कंप्यूटर के साथ दौड़ रही है और ये अभी तक शनि, मंगल में उलझे हैं।"  अज़ीज़ फारुकी ने पंडित ब्रह्मस्वरूप शर्मा को उपहास स्वर में कहा। कहानी संग्रह की पांचवी कहानी "तुम लोग" है ये दो मुख्य किरदार, अज़ीज़ फारुकी और ब्रह्मस्वरूप शर्मा एक दुसरे को लाख दफ़ा  कोसने के बाद भी अच्छे दोस्त हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि दोनों में मतभेद तो ज़रूर हैं लेकिन मनभेद नहीं। जहाँ पंडित ब्रह्मस्वरूप शर्मा संस्कारों, संबंधों और समाज से जुडी और प्रचलित मान्यताओं की परिधि में रहकर ही जीने को जीवन जीने का सही तरीका मानते हैं वही अज़ीज़ फारुकी ज़िन्दगी को प्रैक्टिकल हो कर जीते हैं। ब्रह्मस्वरूप शर्मा के अपने पुत्र के लिए बाज़ार से मोटरसाइकिल खरीदने के दिन का चुनाव करने में, दोनों दोस्त अपने-अपने तर्क-वितर्क रखते हैं। मगर बात किसी हल तक ना पहुंचकर लच्छेदार बातों में और फंसती जाती है और बातों में एक दुसरे से जीतने की होड़ में ब्रह्मस्वरूप शर्मा अभी तक रीति रिवाजों पर चल रही बहस का रास्ता छोड़ धर्म की पगडण्डी पकड़ लेते हैं और आवेश में कुछ ऐसा कह जाते हैं जो अज़ीज़ फारुकी को चुभ जाता है। ज़रा सी बात कैसे सब कुछ सत्यानाश कर सकती है इसे इस कहानी के ज़रिये अच्छे से समझा जा सकता है लेकिन उन्ही बातों को उस पल भर के आवेश से बाहर निकल कर अगर सोचा जाए तो सब कुछ आसानी से भी सुलझ जाता है। लेखक ने कहानी के ज़रिये ये बताने की सफल कोशिश की है कि 'तुम लोग' से 'हम लोग' का ये सफ़र सिर्फ कुछ डग भर का ही है लेकिन कभी-कभी हमरी सोच इसे कभी न पार होने वाला मीलों लम्बा रास्ता भी बना देती है।

कहानी संग्रह की छठी कहानी "नफ़ीसा" है। "मुंहजलो, खंजीर की औलादों तुम्हारे माँ-बापों ने ये ही सिखाया है कि दूसरों के घरों में जाकर चोरियां करो" - कहानी की मुख्य किरदार नफ़ीसा का अपनों के बीच रहते हुए अपने शौहर और लड़के को खोने का गुस्सा रह-रह के उसकी ज़बान से फूटता है। बूढी हो चुकी नफ़ीसा की ज़बान आज जिस तरह आज गाली गलौज से भरी पड़ी है उसमे एक वक़्त पहले तक उतनी ही मिठास और आत्मीयता हुआ करती थी। उसके अपने ..... अपने कौन? उसके मजहब वाले .... नहीं, उसके सुख-दुःख में बराबर साथ रहने वाले उसकी मोहल्ले के लोग ज़रुरत के वक़्त काम न आ सकने के कारण अपराधबोध लिए उसके व्यवहार को सहते हैं। दंगा एक ऐसे चक्रवात की तरह होता है जो इंसानियत, मासूमियत और दरियादिली कुछ भी नहीं देखता बस बढ़ा चला आता है और अपने पीछे तबाही का वो खौफनाक मंज़र छोड़ जाता है जिस पर केवल अफ़सोस ही किया जा सकता है। उस चक्रवात के सर पर सिर्फ और सिर्फ बदला हावी होता है, मगर किस बात का बदला? लेखक ने इसी संवेदनशील मुद्दे को नफ़ीसा  के किरदार के ज़रिये बूझने की कोशिश की है। दंगे की नफरत भरी आंधी में अपने करीबीजनों को गँवा चुकी नफ़ीसा का गुस्सा किसी धर्म विशेष से ना हो कर उन लोगों से है जो उस वक़्त खुद की बनाई और पहनी हुई बेड़ियों में जकड़े हुए थे जिसके कारण वो उसके शौहर और बेटे को उस खौफनाक दंगे से नहीं बचा पाए। नफ़ीसा की ज़बान से जितनी आग निकती है उसका माँ दिल भी उतना ही पिघलता है, जब वो बेक़सूर और मासूम बच्चे को दंगे की भेंट चढ़ने की खबर सुनती है - "या ख़ुदा ये क्या कर दिया? छोटे बच्चे को तो बख्श देते? कीड़े पड़े उके हाथों में, जिन्होंने ये किया है, खंजीर की औलादों तुम दोज़ख की आग में जलो, तुम्हारे होतो-सौतों की मैय्यत उठे ......"नफ़ीसा के संवादों में लेखक ने उर्दू भाषा की खूबसूरती का बाखूबी इस्तेमाल किया है हालाकिं वो अधिकतर गालियों के ज़रिये आया है लेकिन फिर भी वो अपनी मिठास छोड़ता है।

कहानी संग्रह की सातवीं कड़ी "चौथी, पांचवी और छठी क़सम" है। टेड़े-मेढे अंदाज़ में कहें तो कहानी नमक के दरोगाओं द्वारा ढप्पू के नमक को तीन बार लूटने की कहानी है। कहानी का मज़ा भूमिका बाँध रहे पहले पैराग्राफ को हटाकर भी उतना ही लिया जा सकता है, जितना उसके होने में है। उसकी ज़रुरत भी कम ही दिखाई पड़ती है क्योंकि जिसे नमक की समझ है तो है, जिसे नहीं है तो नहीं है। प्रतीकात्मक और देशज शब्दों से खेलती ये कहानी समाज के उस पहलू से पर्दा उठाने की कोशिश करती है जिसके बारे में सोचना भी भारतीय संस्कार और समाज को शर्मसार करने के लिए काफी है, मगर इन सबमे उन विनोद दादा जैसे लोगों का क्या जो "आदमी हूँ आदमी से प्यार करता हूँ" वाले सिद्धांत को पकड़ मुन्नाओं को अग्नि-परीक्षा से पार लगवाते  हैं। लेखक ने ढप्पू को जो चौथी, पांचवीं और छठी क़समें खिलवाई हैं वो उनके कसमों के आगे ब्रैकेट में पहली, दूसरी और तीसरी लिख देने से कमज़ोर तो नहीं होती लेकिन ढप्पू की कसमों पर लेखक की कलम का दबाव बतला देती हैं। ढप्पू की इस अनोखी कहानी के बीच-बीच में आते हुए शेर ढप्पू के दर्द को पाठकों से सांझा करते चलते हैं मगर ढप्पू जवान उम्र के हाथ की कठपुतली बना बस आह-आह ही कर पाता है, कभी वाह-वाह नहीं। 

लेखक ने ढप्पू के ज़रिये उन छद्म इलाकों में झाँकने की कोशिश की है जहाँ आजकल की नौजवान उम्र को ललचाते कतरन जैसे कई विज्ञापन न्यूजपेपरों के कोने पकडे रहते हैं और चटपटी और रंगीन बातों का लुभावना सा वादा देकर पैसे की लूटपाट करने में कामयाब भी होते हैं। न्यूजपेपरों के अलावा इन्टरनेट का वर्चुअल वर्ल्ड भी अपनी तमाम अच्छाइयों के साथ-साथ कई बहरूपियों की शरणस्थली भी बन चुका है। चैट-रूम जैसे विकल्प जहाँ मौजूद हैं जहाँ मौजूद बहरूपिये आपके एक क्लिक दबाते ही आपको आपके ख़्वाबों की दुनिया का सैर करवाने का झांसा दे कर नौजवान उम्र को आसानी से फांस कर पैसे के अलावा भी अपनी कई मंशाओं की पूर्ती भी कर रहे हैं। ये कहानी एक ऐसी जगह से पर्दा उठाने की कोशिश करती है जहाँ का सच अँधेरे और परदे के पीछे ही है और उसे वही रहना अच्छा भी लगता है और कई मासूम लोगों का उसके झांसे में फसकर उस सच से साक्षात्कार भी परदे के पीछे ही होता है। आखिरी में फ़िराक का शेर नमकीन ज़माने द्वारा ठगे ढप्पू के हालत बड़ी आसानी से कह जाता है। यूँ तो कहानी व्यंग शैली में कही गई है लेकिन वो बातों-बातों में उस लुभावने लेकिन खतरनाक सच से भी पर्दा उठाती है जो धीरे-धीरे नौजवान उम्र की शारीरिक जिज्ञासा और उत्सुकता को जल्द से जल्द शांत करने के बहाने बड़ी आसानी से उन्हें अपनी गिरफ्त में ले रहा है। आज के समय की इस ठगी को लेखक ने इस कहानी में ढप्पू के किरदार के ज़रिये अच्छे से उभारा है।

कहानी संग्रह की आठवीं कहानी "और बच्चा मर गया" है। "और बच्चा मर गया" नौकरशाही की सांठ-गांठ को परत दर परत खुरच कर सामने लाती है कि किस प्रकार जिले के सर्वेसर्वा बने बैठे अधिकारी गण अपने और अपने साथियों के काले कारनामों को छिपाने के लिए गिरने की किस हद तक जा सकते हैं। कहानी कुर्सियों पर मठाधीशों जैसे प्रतिष्ठित अधिकारियों द्वारा जनता के शोषण का एक पहलू सामने लाती है। यहाँ पर शोषण के केंद्र बिंदु रतनगढ़ में रहने वाले आदिवासी हैं। कलेक्टर राजेंद्र चौधरी और मोहन शर्मा उन दो शोषकों के नाम हैं जो पद और कद दोनों का दुरुपयोग अपनी अय्याशियों के लिए करने में ज़रा भी नहीं झिझकते हैं। कहानी में कथ्य के हिसाब से कुछ नयापन नहीं है क्योंकि अक्सर ऐसी कुछ एक घटनाएं हम सब कभी न्यूजपेपर तो कभी चीखते चिल्लाते नयूजचैनलों के ज़रिये पढ़ते और सुनते रहते हैं। लेखक ने शुरुआत की दो पंक्तियों में मोहन शर्मा और राजेंद्र चौधरी को जिलाधीश कह के संबोधित किया है मगर उसके बाद पूरी कहानी में सिर्फ कलेक्टर शब्द का ही प्रयोग किया है। ये जिलाधीश शब्द लेखक ने लेखकीय दृष्टि से तो शुरू में डाला लेकिन स्वयं की आम बोलचाल की भाषा में आने वाले कलेक्टर शब्द को वो अपने से ज्यादा दूर नहीं रख सके। कहानी का एक कमज़ोर पहलू उसका शीर्षक है जो कहानी में दिखलाई गई समस्या को कहीं से भी छूता हुआ नहीं दिखाई पड़ता है। इस कहानी में आदिवासी कन्या के बच्चे का मरना समस्या नहीं है, समस्या उससे कहीं ज्यादा बड़ी और गंभीर है। कहानी संग्रह की इस कहानी को इसकी कमज़ोर कहानियों की सूची में रखा जा सकता है।

कहानी संग्रह की नवी कहानी "दो एकांत" है। कहानी एक ऐसे समय की परिकल्पना करती है जिसे अपने दंभ और कृत्य में चूर पुरुष कन्या भूर्ण हत्या और स्त्रियों के संसार में होने के खिलाफ तमाम साजिशें कर उनकी संख्या को नाम-मात्र की श्रेणी में ले आता है। कहानी का ताना-बाना सन 2003 में बॉलीवुड की फिल्म "मातृभूमि - ए नेशन विदआउट वीमेन" से काफी मिलता जुलता है।  कहानी बहुत धीमे-धीमे आगे बढ़ती है और उसके बैकग्राउंड में उदासीनता का जो स्वर उभर के आता है वो उस युवक और बूढ़े के संवादों और दोनों के बीच पसरे हुए उस खालीपन में नज़र आता है जिसकी ज़िम्मेदारी अब कोई चाह के भी नहीं लेना चाहता, मगर जो हुआ उसका अफ़सोस ज़रूर जतलाना चाहता है। जिस शहर नुमा कस्बे में कहानी के ये दो एकांत अकेले अपनी गुज़र बसर कर रहे हैं वहां वो ही सिर्फ अकेले नहीं है बल्कि उनके पूर्वजों द्वारा किये गए गुनाहों की सज़ा काट रहे और भी कई लोग हैं, इन पंक्तियों में ये दंश साफ़-साफ़ झलकता है - "पिताजी बताते थे कि पूरा गाँव उजाड़ सा लगता था। दादाजी को पता लगा कि कहीं किसी गाँव में एक लड़की है। जात-पात का तो कुछ पूछना ही नहीं था। लड़की होना ही सबसे बड़ी जात थी। बात इतनी आसान भी नहीं थी, जितनी दादाजी समझ रहे थे। एक लड़की थी और कितने सारे ...........". 

कहानी उस खौफ़नाक स्थिति को दिखलाती है जब समाज में स्त्रियाँ नाम-मात्र की संख्या में रह गई हैं और अगर हैं भी तो सिर्फ और सिर्फ तस्वीरों में, किस्सों में और घने अँधेरे ख़्वाबों में। युवक के दोस्त के पूछने पर कि सब लड़कियां अचानक यूँ कहाँ चली गई पर बूढ़े का जवाब वर्तमान समय में जो स्त्री पर पुरुष केन्द्रित समाज द्वारा किया गया अत्याचार सामने आता है जब वो कहता है - "हमने, हम, जो हर दूसरे हर रूप में स्त्री को पसंद करते थे, लेकिन बेटी के रूप में उसे देखते ही हमें जाने क्या हो जाता था।" लेखक ने वर्तमान समय और समाज की एक बड़ी समस्या को इस कहानी का बैकग्राउंड बनाकर चेताने की कोशिश की है कि अगर ऐसा चलता रहा तो फिर वो भयावह समय दूर नहीं जिसकी कल्पना इस कहानी में की गई है। इस कहानी का अपना एक अलग मूड और स्वर है जो पिछली कहानियों को पढ़ते-पढ़ते अचानक इस कहानी पर आकर टूटता है और वो ज़रूरी भी है क्योंकि कहानी इस चीज़ की मांग भी करती है। कहानी के किरदारों में पसरी ख़ामोशी और उदासी अन्दर से झकझोरती है, उसमे उस बीते हुए समय को खोने का मलाल तो है ही साथ में हाल के समय को गुज़ारने की पीड़ा भी ओ रह-रह के उभरती है।


"आनंद तुमने आम्रपाली की कथा पढ़ी है? उसमे जब आम्रपाली को वैशाली द्वारा जबरदस्ती नगरवधू बना दिया जाता है, तब एक दिन उसका पूर्व प्रेमी हर्ष सारे बंधन तोड़ते हुए आम्रपाली तक पहुँच जाता है और उसे अपने साथ भाग चलने को कहता है, तब आम्रपाली उसे कहती है कि ऐसे नहीं, सारे वैशाली में, सारे जनपद में आग लगाकर, सब जला कर आना मेरे पास, तब मैं चलूंगी तुम्हारे साथ, अभी नहीं।" - शारदा और आनंद कान्त के बीच ये संवाद कहानी संग्रह की आखिरी और दसवीं कहानी "महुवा घटवारिन" में नर्मदा के तट पर उन दोनों की आखिरी मुलाकात और उसमे डूबते, बिखरते सूरज को विदा देता है। "महुवा घटवारिन" सर्वप्रथम आधारशिला पत्रिका के जुलाई 2009 अंक में प्रकाशित हुई थी, उसके बाद शायद हंस पत्रिका में इस कहानी का एक लेख में ज़िक्र हुआ था। उसके बाद ये कहानी नया ज्ञानोदय के विशेषांक 'लोक रंगी प्रेम कथाएं' में भी प्रकाशित हुई। साहित्य जगत और आम पाठकों दोनों ने ही इस कहानी को सर-आँखों पर बैठाया। लेखक की चर्चित कहानियों में से एक ये कहानी इस कहानी संग्रह का शीषक भी है। मैं यहाँ पर फणीश्वर नाथ रेणू जी की बहुचर्चित कहानी और उस पर बनी फिल्म 'तीसरी कसम उर्फ़ मारे गए गुलफाम' में आये हुए महुवा घटवारिन के उस पात्र की कुछ भी भूमिका ना बाँध कर सीधा इस वर्तमान कहानी पर आता हूँ। क्योंकि महुवा घटवारिन का रेणू की कहानी में आना एक याद रह जाने वाली छोटी सी कोई लोक-कथा है या एक अलग ही कहानी है जिसे रेणू  ने अधूरा छोड़ दिया है, इसी बहस में उलझे हुए हैं प्रोफ़ेसर आनंद कान्त शर्मा और उनके मार्ग दर्शन में रेणू पर शोध कर रही उनकी शोध छात्रा कुसुम। 

कुसुम प्रोफ़ेसर शर्मा को उसके द्वारा गढ़ी गई आगे की कहानी सुनाती है और जब कुसुम ये कहती है - ".......... महुवा तो घाटों की पुत्री है अत: वो तो घाट छोड़ कर जा ही नहीं सकती और जहाँ तक उस लड़के का प्रश्न है वो इसलिए नहीं लौटेगा क्योंकि वो पुरुष है, छल देना तो पुरुषों के स्वभाव में ही होता है। इस छल को वो एक सुन्दर नाम देता है 'प्रेम', लेकिन वस्तुत: तो तो स्त्री को छलता ही है और ये भी सत्य है कि एक बार पुरुष को उड़ने के लिए विस्तृत आकाश मिल जाए तो वो फिर भूल जाता है कि कहीं कोई है, जो उसके लौटने की प्रतीक्षा कर रहा है।" इन पंक्तियों की बानगी प्रोफ़ेसर शर्मा को अपने साथ बहा कर नर्मदा के उस तट पर लाकर छोडती है जहाँ शारदा ने नौजवान आनंद कान्त से कहा था - "........ कुछ बन जाओ, तब आना मेरे पास, मैं तब तक तुम्हारी प्रतीक्षा कर लूंगी, पर इस आधे-अधूरे पलायनवादी अस्तित्व के साथ तुम्हारा बार-बार आना स्वीकार नहीं कर पाउंगी।" कुसुम और शारदा की कही बातों की धार में ज़रूर 35 सालों का फर्क है लेकिन कई बातें वक़्त के साथ अपनी धार और तेज़ कर लेती हैं और यही वो बात है जो प्रोफ़ेसर शर्मा को 35 साल बाद अन्दर से झकझोर रही है।

लेखक ने रेणू की कहानी में आई महुवा घटवारिन की लोक-कथा के ज़रिये आज के समय में कुसुम, प्रोफ़ेसर शर्मा और शारदा का किरदार रच के जो खांका खीचा है वो समय की बहती धार में आगे निकल आई कश्तियों को उनके छूटे हुए किनारों की पुकार सुनाता है। उसी नर्मदा के तट पर छूटे हुए किनारे को तलाशने प्रोफ़ेसर शर्मा वापिस वहीँ पहुँचते हैं जहाँ एक बार उन्होंने शारदा से पुछा था कि "शारदा अगर मैं स्वयं को नर्मदा में समर्पित कर दूं तो ये मुझे डुबायेगी या पार लगा देगी?" जिस पर शारदा का जवाब था "यक़ीनन डुबो देगी, क्योंकि नर्मदा ने कभी कायरता को स्वीकार नहीं किया है।" कहानी में वो सारे तत्त्व विद्यमान हैं जो इसे श्रेष्ठ कहानियों की कतार में सहजता से रख देते हैं, चाहे वो भाषा हो, शिल्प हो, शैली हो या कहानी का बहाव हो।
कथाकार पंकज सुबीर के कहानी संग्रह "महुवा घटवारिन और अन्य कहानियाँ" में कुल मिलाकर 10 कहानियां है। किसी भी कथाकार की तुलना केवल उसी से ही की जा सकती है क्योंकि तब मानक, स्थितियां और तुलना करने के अन्य ज़रूरी तत्व भी बराबर होते हैं। अगर लेखक के पहले कहानी संग्रह ''ईस्ट इंडिया कंपनी'' से "महुवा घटवारिन और अन्य कहानियाँ" की सम्पूर्ण रूप से तुलना की जाए तो "महुवा घटवारिन और अन्य कहानियाँ" उससे कमतर साबित होती है। कहानी संग्रह की कुछ कहानियां अपनी ऊँचाइयों को छूती हैं लेकिन जब सम्पूर्ण संग्रह की बात आती है तो कुछ कमज़ोर कहानियां उसे पीछे भी धकेलती हैं। कहानी संग्रह की कहानियों में कहीं-कहीं विषयों को दोहराव भी दिखाई पड़ता है, मगर वो उस चेहरे को दूसरी तरफ से देखने की एक कोशिश भी है क्योंकि समस्या का सिर्फ एक ही चेहरा नहीं होता है। पंकज सुबीर ने आज के समय को मद्देनज़र रखते हुए इस कहानी-संग्रह के किरदार और कहानियां गढ़ी हैं और अपनी बात कहने में वो सफल भी हुए हैं। मुझे पूरा यक़ीन है कि पंकज सुबीर का कहानी संग्रह "महुवा घटवारिन और अन्य कहानियाँ" आपकी चुनिन्दा किताबों के शेल्फ में अपनी जगह बनाने में कामयाब रहेगा। ये कहानी संग्रह लेखक से आगे ऐसी ही कई और इनसे भी उम्दा कहानियों की उम्मीदें भी बंधाता है। मेरी शुभकामनाएं उनके साथ हैं। चलते-चलते मैं निर्दोष त्यागी जी को भी बधाई देना चाहूँगा जिन्होंने इस कहानी-संग्रह का लाजवाब आवरण पृष्ठ बनाया है।


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4 comments:

Manish Kumar said...

शुक्रिया इस कहानी संग्रह से रूबरू कराने के लिए। वैसे इस समीक्षा को दो भागों में पेश करते तो और बेहतर होता।

Ankit said...

शुक्रिया रविकर जी।

हम्म .......... मनीष जी, आप की बात से सहमत हूँ। पत्रिका में पढ़ने में आसानी रहती है लेकिन ब्लॉग में दिक्कत हो जाती है। खुद मुझे ही लम्बी पोस्ट पढने में दिक्कत महसूस होती है जब उसमें प्रवाह और खिंचाव थोड़ा कम रहता है, और इसमें ये दोनों ही कम हैं।

नीरज गोस्वामी said...

Ankit tum itni achchhi samiksha karte ho ye to mujhe aaj hi maloom hua...Kamaal kiya hai bhai...maine ye kitab nahin padhi lekin iski kuchh kahaniyan jaroor padhi hain aur us hisaab se tumne jo jis andaaz se likha hai wo kamaal hai, Hindi bhasha par tumhare adhikaar ko dekh kar bahut khush hua hoon. Jiyo

Neeraj

Ankit said...

शुक्रिया नीरज जी