30 November 2015

ग़ज़ल - हर इक साँचे में ढल जाये ज़रा ऐसे पिघल प्यारे


हर इक साँचे में ढल जाये ज़रा ऐसे पिघल प्यारे
तू अपनी सोच के पिंजरे से बाहर तो निकल प्यारे 

झुकायेगा नहीं अब पेड़ अपनी शाख पहले सा 
तेरी चाहत अगर ज़िद्दी है तो तू ही उछल प्यारे 

पस-ए-हालात में ख़ामोशियाँ भी चीख उट्ठी हैं 
रगों में गर लहू बहता है तेरे तो उबल प्यारे 

जहाँ फ़रियाद गुम होने लगे आवाज़ में अपनी 
वहाँ पर टूटने ही चाहिये सारे महल प्यारे 

निवाला आज भी मुश्किल से मिलता है यहाँ लेकिन 
फले-फूले हैं हाथी, साइकिल, पंजा, कमल प्यारे 

है अहल-ए-शहर का लहजा न जाने तल्ख़ क्यूँ इतना 
सुनाना चाहता हूँ मैं यहाँ बस इक ग़ज़ल प्यारे 

3 comments:

Ankur Jain said...

सुंदर प्रस्तुति।

मुकेश कुमार सिन्हा said...

सुन्दर गजल

संजय भास्‍कर said...

बहुत खूब ग़ज़ल के लिए