31 August 2019

ग़ज़ल - मैं मुहरा बन के जिसका फिर रहा था




मैं मुहरा बन के जिसका फिर रहा था।
वो अपनी चाल में शातिर रहा था।

दिया हर शाख़ ने उसको सहारा,
वो पत्ता टूट कर जब गिर रहा था।

अचानक से नहीं ख़ामोशी छाई,
ये मौसम धीरे-धीरे घिर रहा था।

तेरी ऊँगली पकड़ कर ख़्वाब मेरा,
इसी दुनिया में ख़ुश-ख़ुश फिर रहा था।

रखा परदे में अपना इश्क़ तू ने,
मैं अपने इश्क़ में ज़ाहिर रहा था।

परखना काम है हर वक़्त का, और
वो अपने काम में माहिर रहा था।

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फोटो - 'Pillars Of Deceit' Painting by Michael Lang

2 comments:

कविता रावत said...

बहुत सुन्दर गजलगोई प्रस्तुति

दिगम्बर नासवा said...

बहुत खूब ...
लाजवाब शेर हैं अंकित जी ...