यूँ तो इस बात को या कहें मुलाक़ात को बराबर २ हफ्ते होने वाले हैं मगर मेरी इस देरी से इस पर कोई फ़र्क नहीं पढने वाला है. मुंबई में झमाझम बारिश शुरू हो चुकी है, जिस बात का ज़िक्र पिछली पोस्ट में किया था, हाँ वो मानसून वाली फिल्म , हाँ वो लग चुकी है और लोग आनंदित भी हैं और परेशान भी.
लौटते हैं मुद्दे पर, किसी ने ठीक ही कहा है और जिसने ये कहा है ये पोस्ट भी उसी के बारे में है कि "मुंबई में अच्छे इंसान और अच्छी हिंदी की किताबें मिलना बहुत मुश्किल है", अगर ये मिलते भी हैं तो कुछ मेहनत के बाद नहीं नहीं काफी मेहनत के बाद या फिर आपकी किस्मत के सितारें नक्षत्रों के अच्छे दोस्त हो तब ही ये मुमकिन है, मैं नहीं जानता मेरे साथ कौन सा चमत्कार हुआ इनमे से या फिर वो कुछ और ही था मेरी सोच समझ से परे...............
दिनांक ४ जून, २०१० को ठीक ४ बजकर ५३ मिनट पे मेरे सेल-फ़ोन पर नीरज जी की कॉल की दस्तक हुई और बात हुई के बहुत दिन हो गए ब्लॉग और फ़ोन पे बतियाते अब आमने-सामने मिला जाए और दिन मुक़र्रर हुआ अगला दिन यानी ५ जून, २०१०, जगह खोपोली, मुंबई-पुणे रास्ते पे बसा एक खूबसूरत नगर.
बस फिर क्या, पहुँच गए खोपोली नीरज जी से मिलने, अब नीरज जी के बारे में कुछ कहूँगा तो लफ्ज़ कहेंगे कि बस इतना ही अरे ये तो तुमने इनके बारे में बताया ही नहीं, अरे तुम ये भी कहना भूल गए ................. इसलिए एक सुझाव है कि आप भी इनसे ज़रूर मिले वर्ना समझ लीजिये के कुछ अधूरा ही लगेगा और रहेगा भी.
नीरज जी से मिलने के साथ ही साथ मुलाक़ात हुई उनके द्वारा संजोये हुए किताबों के जखीरे से, जो उनके ब्लॉग पे संचालित किताबों की दुनिया की बुनियाद है, दिन तो हसीं हो ही गया था शब्दों के संसार में विचरण करके और शाम को खोपोली की सैर, सोने पे सुहागा हो गया. खोपोली बहुत खूबसूरत है और हो भी क्यों ना, जहाँ एक खुशमिजाज इंसान रहेगा वहां का मौसम भी उसके जैसा ही होगा.
रात को खाना खाने के बाद, महफ़िल जम गयी, एक सिरे पे नीरज जी और दूजे पे मैं, दे दना दन शेर, ग़ज़लें निकल रहे थे समझ लीजिये की नशिस्त का miniaturisation था मगर जो भी था मजेदार रहा.
अगली सुबह तो क्रिकेट के साथ शुरू हुई, भूषन स्टील में एक बहुत अच्छी कोशिश है सब लोगों को एक मंच पे या एक पिच पे लाने की, रोज़ सुबह सब लोग अपने पद, पदवी को मैदान के बाहर रख कर क्रिकेट खेलने जुटते हैं और नीरज जी अगुवा होते हैं. मैंने भी काफी दिनों से क्रिकेट नहीं खेला था और ये मुराद भी पूरी हो गयी.
ऊपर चित्र में नीरज जी bowling करते हुए
मौसम भी साथ था इसलिए धडाधड दो मैच खेल लिए, नीरज जी ने इस मैच में batting भी करी, bowling भी करी, fielding भी करी और umpiring भी करी, ऐसे all -rounder से अगर नहीं मिले तो फिर क्या बात हुई (गुरु जी मुंबई जल्दी आ जाइये).
इस मजेदार खेल के बाद रविवार की शाम प्रकाश झा के नाम रही, मगर राजनीति ने बहुत राजनीति खेली हमारे साथ, टिकेट ही नहीं मिल पा रहा था मगर हार मानने वाले हम भी नहीं थे, आखिर में लेकर ही छोड़ा.
फिल्म देखने से पहले हम लोग इंतज़ार में बाहर बैठे थे तभी का ये चित्र और एक जिंदादिल हसीं, फेविकोल के मजबूत जोड़ सी चेहरे पे हर वक़्त की तरह खिल रही थी.
मुद्दतों से मुद्दई जिस मुलाक़ात को मैं सोच रहा था आख़िरकार वो मुकम्मल हुई.