आप सभी को मेरा नमस्कार,
काफी दिनों बाद ब्लॉग पे आना हुआ है, पहले माफ़ी मांगना चाहूँगा................
पुणे से जाने के बाद सीधे घर का रुख किया था और घर जाके वक्त का पता ही नही चला, इसी बीच में दिल्ली आना भी हुआ, फ़िर लगा की काफ़ी दिनों तक मस्ती कर ली.........
एक ग़ज़ल पेश कर रहा हूँ, मुझे मेरी गलतियों से अवगत कराएँ।
शब के बोझ से कभी सहर थकी नहीं।
ज़िन्दगी बढे चली मगर थकी नहीं।
रेत की ज़मीं पे, नीर की तलाश में,
बाजुएं थकी नहीं, कमर थकी नहीं।
कर फतह हज़ार पे, नयी को ढूँढने,
चल पड़ी तलाश में, नज़र थकी नहीं।
आग बन गयी वो बात जो ज़रा सी थी,
खौफ भर गयी मगर खबर थकी नहीं।
जानकार के है किनारा आखिरी में ही,
जूझती ही वो रही, लहर थकी नहीं।
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9 comments:
रेत की जमीं पे, नीर की तलाश में,
बाजुएं थकी नहीं, कमर थकी नहीं.
--बहुत उम्दा शेर कहे हैं, वाह!!
UMDA SHE'R SE TAIYAAR YE GAZAL BHI UMDAA ...BAHOT HI KHUBSURAT GAZAL KE LIYE AAPKO BADHAAYEE.... KAR FATAH HAZAAR PE... YE SHE'R KAFI UMDAA...
DHERO BADHAAYEE
ARSH
अंकित भाई,
बहुत दिन बाद पोस्ट लगाईं आपने
आग बन गई वो बात जो जरा सी थी
खौफ भर गई मगर खबर थकी नहीं
वाह वाह दिल खुश कर दिया
बहुत सुन्दर
आपका वीनस केसरी
अंकित जी
इस खूबसूरत ग़ज़ल में कहीं कमी की बात नज़र नहीं आती............इतना नया पन है की क्या बताये.........
वैसे चाहूँ तो हर शेर की लिए कुछ न कुछ कहने को मन हो रहा है . पर २ के बारे में ख़ास कहूँगा
रेत की ज़मीं पे............जिन्दादिली की मिसाल पेश करता हुवा शेर
जानकार के है किनारा...........जिंदगी की कशमकश को लाजवाब तारीकी से उतारा है इस शेर में
बहुत सुन्दर प्रयास...गुरु जी आपमें छुपे हीरे को तराश रहे हैं...चमक साफ़ नजर आने लगी है...
नीरज
बहुत खूब अंकित...बहुत खूब...क्या ग़ज़ल कही है दोस्त...
’आग बन गयी वो बात जो जरा सी थी / खौफ़ भर गयी मगर खबर थकी नहीं"
दिनों बाद आये हो और छा गये हो...
आग बन गई वो बात जो जरा सी थी
खौफ भर गई मगर खबर थकी नहीं
बहुत खूब अंकित जी....!!
वाहवा... ये भी खूब रही..
आप कहाँ गायब हो गए हो ???
बहुत दिन से कुछ नया नहीं लिखा ...
वीनस केसरी
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