18 September 2009

ग़ज़ल - तेरा दीवाना मैं पागल फिरूं आवारा गलियों में

कैसे हैं आप सब लोग?
मुंबई वापिस लौट आया हूँ लखनऊ से, वहां कंचन जी से मिलना हुआ (सभी का सलाम उन्हें दे दिया है तो कोई नाराज़ नहीं होना)। खूब खातिरदारी हुई उनकी दीदी के घर में, एक कारन तो कंचन जी से पहली बार मिलने का था और दूसरा उनकी पदोन्नति का (आपको पता है की नहीं, अरे जल्दी उनसे मिठाई मांगिये और खाइए)।
अब ज़्यादा तारीफ क्या करूँ उनकी, बस इतना ही कहना चाहूँगा, जो लोग उनसे नहीं मिले हैं ज़रूर मिले, बहुत बातें करती हैं और अच्छी बातें करती हैं।
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चलिए आपको अपनी एक ग़ज़ल से रूबरू करवाता हूँ, बहरे हजज की ये ग़ज़ल गुरु जी का स्नेह प्राप्त कर आपसे मिलने के लिए बेकरार है तो लीजिये........अर्ज किया है।

तेरा दीवाना मैं पागल फिरूं आवारा गलियों में।
तेरी चाहत मोहब्ब्त ही सजा रक्खी है नज़रों में।
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मेरी दीवानगी, आवारगी तुझसे जुड़े किस्से
वो मुद्दे बन गए हैं बात के अब तेरी सखियों में।
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ज़रा कुछ गौर से देखो मुझे पहचान जाओगे
अमूमन रोज़ तो मिलते हो मुझसे अपने सपनों में।
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मेरी तुम आरज़ू हो, प्यार हो, जाने तमन्ना हो
मुहब्बत की तड़प हो वो संवरती है जो बरसों में।
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नज़र पड़ते ही मुझपे वो तेरा शरमा के मुस्काना
ये जलवे और अदाएं तो सुना करते थे किस्सों में।
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भुलाना भी अगर चाहे "सफ़र" तो है नही मुमकिन
वो यादों में, वो बातों, वो आंखों में, वो साँसों में।

7 comments:

संगीता पुरी said...

कंचन जी से मिलने की बधाई .. रचना बहुत बढिया है !!

संजीव गौतम said...

ग़ज़ल के परम्परागत लहज़े मे सजी-धजी अच्छी लग रही है.

नीरज गोस्वामी said...

मेरी दीवानगी आवारगी तुझसे जुड़े किस्से
वो मुद्दे बन गए हैं बात के अब तेरी सखियों में

भुलाना भी अगर चाहें सफ़र तो है नहीं मुमकिन
वो यादों में ,वो बातों में, वो आँखों में वो साँसों में

बहुत खूब अंकित जी सुभान अल्लाह...क्या शेर कहे हैं...लखनऊ रहने का पूरा फायदा उठाया है आपने...शायरी में पूरी नजाकत और नफासत आ गयी है...बहुत खूब.
कंचन जी को मेरी और से बहुत बहुत बधाई...
नीरज

दर्पण साह said...

Ankit ji namaskaar....

...gautam ji ke blog se aaya ....

...padhkar prasannta hui....

hamara bachpan kuch khaas tha....
waki badhiya post thi aur ramayan, mahabharat, ek chidyian .....
aadi aadi....
and the list goes on,
ki yaad dila gayi....

ye ghazal bhi kama ki hai makta aur matla to adbhoot hai hi par teesra sher....
"Zara kuch gaur se dekho...."
behetreein ban pada hai !!

aapke blog tak pahuchane ke liye gautam ji ka aabhari rahoonga....

कंचन सिंह चौहान said...

वाह अंकित... बड़ी रूमानी गज़ल लगाई तुमने तो... और यहाँ तो कह रहे थे कि नही नही ऐसा कुछ भी नही..कुछ भी नही तो ये तेवर..कुछ हो गया तब क्या करोगे भाई...!

हम सब तुमको याद करत रहते हैं....! एक ऐसा बच्चा, जिसमे पहाड़ी भोलापन बरकरार है....!

God bless you

गौतम राजऋषि said...

वेलकम बैक अंकित....लखनऊ का सारा विवरण तो सुन ही चुका था, और ग़ज़ल तो खूब सुंदर बन पड़ी है। खास कर "अमूमन रोज तो मिलते हो.." वाला शेर बहुत अच्छा लगा है।

दिगम्बर नासवा said...

कंचन जी से मिलने की बधाई .. MUMBAI WAAPSI KI BADHAAI ....

मेरी दीवानगी आवारगी तुझसे जुड़े किस्से
वो मुद्दे बन गए हैं बात के अब तेरी सखियों में

भुलाना भी अगर चाहें सफ़र तो है नहीं मुमकिन
वो यादों में ,वो बातों में, वो आँखों में वो साँसों में

YE DONO SHER KAMAAL KE HAIN AANKIT JI ... MAZAA AA GAYA PADH KAR .. BAHOOT KHOOB