22 May 2012

ग़ज़ल - समझौतों से समझौता कर बैठे हैं

कभी-कभी किसी ख़याल को पकड़ना, किसी साये को पकड़ने जैसा लगता है। वो अपना भी हो सकता है और पराया भी। वो ख़याल जिसके पैदा होने या ख़त्म होने के बारे में फ़िज़ूल की कई बहसें भी की जा सकती हैं, और यक़ीनन की भी जाती हैं। जबकि ये ख़याल  भी तो एनर्जी की तरह हैं जो एक अवस्था से दूसरी अवस्था में बदलते रहते हैं। वैसे ही जैसे कभी कोई ख़याल लफ़्ज़ का जामा ओढ़ कर ग़ज़ल बन जाता हैं तो कभी गीत तो कभी कुछ और ........


समझौतों से समझौता कर बैठे हैं
क्या करने निकले थे, क्या कर बैठे हैं

शब की गिरहें खोलेंगे ये सोचा था
नीदों से आँखें उलझा कर बैठे हैं

फर्क़ नहीं अब कुछ बाकी हम दोनों में
अपना लहजा भी तुझ सा कर बैठे हैं

भूल गए असली शक्लें धीर-धीरे
लोग मुखौटों को चेहरा कर बैठे हैं

आज मुखालिफ़ है अपना साया तक भी
हम कितना ख़ुद को तन्हा कर बैठे हैं

आज ख़रीदी झोली भर के खुशियाँ पर
कूवत से ज़्यादा खर्चा कर बैठे हैं

सिर्फ गरज के आस बंधा जाते हैं इक
ये बादल कुछ तो सौदा कर बैठे हैं

दुनिया की नज़रों में ऊँचा उठने में
ख़ुद को ख़ुद से भी छोटा कर बैठे हैं

[प्रगतिशील वसुधा के जुलाई-दिसम्बर 2012 अंक में प्रकाशित]

5 comments:

नीरज गोस्वामी said...

शब की गिरहें खोलेंगे ये सोचा था,
नीदों से आँखें उलझा कर बैठे हैं।

सिर्फ गरज के आस बंधा जाते हैं इक,
ये बादल कुछ तो सौदा कर बैठे हैं।

दुनिया की नज़रों में ऊँचा उठने में,
ख़ुद को ख़ुद से भी छोटा कर बैठे हैं।

खूबसूरत असरदार शेरों से सजी इस ग़ज़ल की जितनी तारीफ़ करूँ कम होगी...अंकित आपने एक बार फिर से अपने हुनर का लोहा मनवा लिया है...जिंदाबाद...जिंदाबाद...

नीरज

Rajeev Bharol said...

वाह. कमाल. कमाल कर दिया है.. सभी शेर अव्वल दर्जे के हैं.

समझौतों से समझौता कर बैठे हैं।
क्या करने निकले थे, क्या कर बैठे हैं।

लाजवाब मतला...

शब की गिरहें खोलेंगे ये सोचा था,
नीदों से आँखें उलझा कर बैठे हैं।

खूब.

फर्क़ नहीं अब कुछ बाकी हम दोनों में,
अपना लहजा भी तुझ सा कर बैठे हैं।

भूल गए असली शक्लें धीर-धीरे,
लोग मुखौटों को चेहरा कर बैठे हैं।

आज मुखालिफ़ है अपना साया तक भी,
हम कितना ख़ुद को तन्हा कर बैठे हैं।

आज ख़रीदी झोली भर के खुशियाँ पर,
कूवत से ज़्यादा खर्चा कर बैठे हैं।


सिर्फ गरज के आस बंधा जाते हैं इक,
ये बादल कुछ तो सौदा कर बैठे हैं।

दुनिया की नज़रों में ऊँचा उठने में,
ख़ुद को ख़ुद से भी छोटा कर बैठे हैं।

वाह!

बहुत ही उम्दा गज़ल है.. ढेरों दाद कबूल करें.
दिल खुश हो गया.

वीनस केसरी said...

जियो भाई जियो

क्या कमाल के शेर कहे हैं
हर शेर सोच कि बुलंदी तक पहुंचा है
वाह वाह

कंचन सिंह चौहान said...

किस शेर की तारीफ करूँ श्रीमान.. सारे के सारे ही तो उम्दा हैं....!!
बहुत खूऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽब.............!!

समझौतों से समझौता...!! बात जब एक बार मतले में बन जाती है ना, तो बस बनती जाती है और बनती चली गई ताग़ज़ल....!

VIJAY KUMAR VERMA said...

आज मुखालिफ़ है अपना साया तक भी,
हम कितना ख़ुद को तन्हा कर बैठे हैं।

बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल