आज जिस ग़ज़ल से आप का तआरुफ़ करवाने जा रहा हूँ, मुमकिन है आप उस ग़ज़ल से 'सुबीर संवाद सेवा' में आयोजित तरही मुशायरे में भी मिल चुके होंगे।
ये भी सच है कि पहली मुलाक़ात ही दूसरी बार मिलने का सबब बनती है।
ये भी सच है कि पहली मुलाक़ात ही दूसरी बार मिलने का सबब बनती है।
गो मुलाकातें अपनी बढ़ी हैं प्रिये
फिर भी कुछ आदतें अजनबी हैं प्रिये
उजला-उजला सा है तेरा चेहरा दिखा
ख़्वाब की सब गिरह जब लगी हैं प्रिये
ज़िक्र जब भी तेरा इस ज़ुबां से लगा
शहद सी बोलियाँ लब चढ़ी हैं प्रिये
यूँ लगे जैसे तेरे तसव्वुर में भी
खुश्बुएँ मोगरे की गुँथी हैं प्रिये
दो निगाहें न उल्फ़त छिपा ये सकी
आहटें दिल तलक जा चुकी हैं प्रिये
खैरियत सुन के भी चैन पड़ता नहीं
फ़िक्र में चाहतें भी घुली हैं प्रिये
ले कई आरजू दिल की दहलीज़ पर
प्रीत की अल्पनायें सजी हैं प्रिये
************
गो:- यद्दपि
गिरह:- गाँठ
तसव्वुर:- ख़याल
गो:- यद्दपि
गिरह:- गाँठ
तसव्वुर:- ख़याल
1 comment:
सीधे सहज पर दिल को लुभाने वाले अशआर से सजी है ये ग़ज़ल..अच्छा लगा पढ़कर !
Post a Comment