03 October 2013

After thoughts - Lunchbox (Part -1)


आखिरी लोकल को पकड़ने का रोमांच वो भी भागते हुए  …. रोमांच के साथ-साथ रोमांस भी लिये होता है। रितेश बत्रा की ''लंचबॉक्स'' के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ, फिल्म देखनी तो थी मगर वक़्त नहीं मिल पा रहा था। और १ अक्टूबर को लगा बस ये शायद आखिरी मौका हो क्योंकि bookmyshow पर २ अक्टूबर की फ़िल्मी खिड़कियाँ "बेशरम हो" चुकी थी।
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उप्पर खिंची इन डॉटेड लाइनस में अभी लिखना बाकी है, फुर्सत मिलते ही ''लंचबॉक्स' की खुशबू से इन्हें भरूँगा। फिल्म की खूबसूरती से भी खूबसूरत एहसास, मेरे पड़ोस वाली सीट पर फिल्म देखने बैठे एक युवा जोड़े को इस आखिरी छूटती लोकल को पकड़ते देखने का था, जो उम्र की शायद ५०-६० कड़ी जोड़ चुके होंगे।

फिल्म के बाद जैसे ही हॉल से बाहर निकला तो मुंबई की बारिश भिगोने को तैयार बैठी थी, बिना बताये आ धमकने वाली बारिश पे तब और खीज उठती है जब आप अपने बैग से अम्ब्रेला को ये सोचकर अलविदा कह चुके होते हैं कि अब तो बारिश गई। मगर आज एक चीज़ और अच्छे से जानने को मिली दरअसल बारिश आपके मूड पे डिपेंड करती है, और आज उसमें भीगना अच्छा लग रहा था। 

यूँ तो मुंबई के डब्बेवालों को "सिक्स सिग्मा" ऑफिशियली नहीं मिला है लेकिन एक अनुमान के अनुसार उनकी गलतियों की गुंजाइश ८ मिलियन में १ या यूँ कहें १६ मिलियन (क्योंकि डब्बे लौटकर वापिस भी आते हैं) में १ आंकी जा सकती है, जबकि "सिक्स सिग्मा" में एक मिलियन में ३.४ गलतियाँ स्वीकार हैं। रितेश बत्रा ने इस खूबसूरत गलती पर एक बहुत सशक्त फिल्म बुनी है, क्योंकि गलत पटरी पर चलने वाली ट्रेन भी सही जगह पहुँच सकती है। आज जबकि हमारी भावनायें छोटी-छोटी बातों को लेकर आहत हो जाती हैं, वहीं अभी तक अपने काम और धुन में डूबे डब्बेवालों ने फिल्म के ख़िलाफ कोई मोर्चा नहीं निकाला। एक सलाम उन्हें भी।

अच्छी फ़िल्में अपनी खुशबुओं से सबको सराबोर करती हैं, इस फिल्म के बरक्स दो मंज़र यहाँ भी पढ़े जा सकते हैं, जो इस फिल्म के ही एक्सटेंशन हैं।
  1. ह्रदय गवाक्ष पर कंचन सिंह चौहान दी
  2. जानकी पुल पर सुदीप्ति जी

2 comments:

कंचन सिंह चौहान said...

रितेश बत्रा की मूवी पर गुलज़ारिश बयान.....!! डैश डैश जल्दी पूरा कर। जिया बेक़रार है, तेरे व्यू पढ़ने को।

बाई द वे ! इतने इत्मीनान से कमेंट देने का कारण जान लो कि बारिश ने आफिस छुड़वा दिया है। छुट्टियाँ ४ से तीन बची हैं। वो भी मेडिकल। महीने भी तीन ही बचे हैं साल में। बाद वाले तीन पर पहले वाला तीन जब आगे निकल जायेगा तो फिर से विथाउट पे। फिर भी खुश हूँ कि लिख, पढ़ पा रही हूँ, अपने पुराने अड्डे पर।

Ankit said...

मेरे लिये दूसरों से वादा निभाना बहुत आसान होता है लेकिन ख़ुद से निभाना बहुत मुश्किल। कंचन दीदी आपका इंतज़ार ख़त्म।
http://ankitsafar.blogspot.in/2013/12/after-thoughts-lunchbox-part-2.html