11 February 2015

ग़ज़ल - कभी जो दूधिया सी शब गुरूर में नहाये है

कुल जमा 28 दिनों की फरवरी नये साल के कैनवास पर रंगे वादों को गहराती है। दरअसल जनवरी महीना तो नये की ख़ुमारी और पिछले साल की यादों के हैंगओवर में ही निकल जाता है। प्रेम में पगी फरवरी ज़िन्दगी और इश्क़ के बीच राब्ता बनाये रखने की बुनियाद है।


कभी जो दूधिया सी शब गुरूर में नहाये है
वो… चाँद को उधेड़कर अमावसें बनाये है

जो लम्स तेरे हाथ का नसीब हो गया इसे
ये चोट फिर तो जिस्म से किसी तरह न जाये है

फ़लक़ के जिस्म पर गढ़ा था एक चाँद तुम ने जो
वो सुबह की तलाश में हर एक शब जलाये है

लिबास-ए-मुफ़लिसी भी गो विरासतों से कम नहीं
बड़ों के जिस्म पर भी था हमें भी अब सजाये है

वो बचपना जो घुल गया है साथ बढ़ती उम्र के
कभी-कभी वो बेसबब सी हरक़तों में आये है

ये जिस्म जिस से है बना उसी में जा के मिलना है
फ़िज़ूल रोना पीटना, फ़िज़ूल हाय-हाय है

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शब : रात
लम्स : स्पर्श
फ़लक़ : आसमान
लिबास-ए-मुफ़लिसी : गरीबी का वस्त्र 

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