02 March 2015

ग़ज़ल - ऐ काश कि पढ़ सकता तू बादल की शिकन भी

ये अचानक से मौसम के करवट बदलने का ही असर जानिये कि फरवरी ने तल्ख़ और गर्म हवाओं की केंचुली उतार फेंकी है। उदासियाँ बूँद-बूँद कर बह रही हैं, स्याह बादल जी को ज़्यादा भा रहे हैं और ख़यालों से सौंधी सी ख़ुश्बू उड़ रही है .... 


ऐ काश कि पढ़ सकता तू बादल की शिकन भी 
बूँदों में था लिपटा हुआ बारिश का बदन भी 

उसने यूँ नज़र भर के है देखा मेरी जानिब 
आँखों में चली आई है हाथों की छुहन भी 

ऐ सोच मेरी सोच से आगे तू निकल जा 
उन सा ही सँवर जाये ये अंदाज़-ए-कहन भी 

बातों में कभी आई थी मेहमान के जैसे 
अफ़सोस के घर कर गई दिल में ये जलन भी 

आहिस्ता से पलकों ने मेरी जाने कहा क्या
अब नींद में ही टूटना चाहे है थकन भी

ढ़लती ही नहीं है ये मुई रात में जा कर 
चुपचाप किसी शाम सी अटकी है घुटन भी 

आग़ाज़-ए-मुहब्बत है 'सफ़र' मान के चलिये 
इस राह में आयेंगे बयाबाँ भी चमन भी 

4 comments:

दिगम्बर नासवा said...

बहुत ही नाजुक ... गज़ब के बिम्ब और दिल को चूने वाली ग़ज़ल अंकित जी ... जोरदार तालियाँ ...

नीरज गोस्वामी said...

ढ़लती ही नहीं है ये मुई रात में जा कर
चुपचाप किसी शाम सी अटकी है घुटन भी

Kya khoob andaaz-e-bayan hai...waah Gulzar yaad aa gaye bhai...Jiyo.

Ankit said...

हौसला-अफ़ज़ाई के लिए तहे-दिल से शुक्रिया दिगम्बर जी।

नीरज जी, आपकी मुहब्बत सर-आँखों पर .…

Manish Kumar said...

ढ़लती ही नहीं है ये मुई रात में जा कर
चुपचाप किसी शाम सी अटकी है घुटन भी

बहुत खूब था ये शेर..

पर एक बात बताओ बारिश का बदन तो हमेशा ही भींगा रहेगा इसके लिए बादन की शिकन पढ़ने की जरूरत है क्या :)