गुनाहों को अपने छिपायें कहाँ तक.
बहुत दूर जाके भी जायें कहाँ तक.
गलत राह पर उसका गिरना तो तय था
भला साथ देती दुआयें कहाँ तक.
अहम् को बचाने की जद्दोज़हद में
वो झूठी कहानी सुनायें कहाँ तक.
हमें खौफ़ गलती का बांधे हुए है
मगर सच से नज़रे चुरायें कहाँ तक.
न मकसद कोई ज़िन्दगी का तिरे बिन
ये साँसों से रिश्ता निभायें कहाँ तक.
मिरे मन मुसाफिर को यादों के रस्ते
भटकने से आखिर बचायें कहाँ तक.
बहरे मुतकारिब मुसमन सालिम (१२२-१२२-१२२-१२२) पर ये ग़ज़ल कही गयी है, इसके बहुत से उदाहरण आपको गौतम भैय्या (मेजर गौतम राजरिशी जी) के ब्लॉग पे मिलेंगे.
अपने विचारों से इसका स्वागत करें...............
17 comments:
बहुत ही लाजवाब ग़ज़ल है आँकित जी ...
हर शेर कुछ नयी बात कहता हुवा है ..... मुकम्मल ग़ज़ल है ... बधाई ...
kabil-e-daad
bandhaii swikaren
वाह भाई अंकित,
बस यही ध्यान रखें कि:
गुनाहों का एहसास पीछा करेगा,
छिपाना गुनाहो को मुमकिन नहीं है।
बहुत ही लाजवाब ग़ज़ल है; इतने दिनों के बाद इतनी अच्छी ग़ज़ल से रु-ब-रु करने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद!
प्रिय अंकित, उस्तादों के कान कतरती इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए दिली दाद कबूल करो...हर शेर मुकम्मल और नया पन लिए हुए है...उर्दू ग़ज़ल को तुमसे बहुत आशाएं हैं...और ये आशा रखना इस ग़ज़ल को पढ़ कर लगता है गलत नहीं है...
नीरज
सुन्दर गजल है!
कुछ शेर जो किसी और के मुँह से बगैर तुम्हारा संदर्भ लिये सुनता तो एकबारगी को यही लगता कि ये बशीर बद्र या निदा के शेर हैं। यकीनन...
खासकर दूसरा तीसरा और चौथा शेर...उफ़्फ़्फ़!
गुरूदेव ने तो खूब पीठ थपथपायी होगी-है ना?
वाह अंकित भाई देर आयद दुरुस्त आयद :)
क्या मारक लिखा है दिल खुश कर दित्ता :)
हर शेर पर वाह वाह हो गई
जानदार , शानदार, सदाबहार
-वीनस
अंकित जी !!
बहुत बहुत उम्दा रचना.....!! लम्बे समय तक गायब रहने के बाद ऐसी ही जानदार वापसी होनी चाहिए थी.....दूसरा और पांचवा शेर बहुत अच्छा लगा......आभार
आप सभी का, हौसलाअफजाई के लिए शुक्रिया,
@ तिलक जी, आपने सही कहा गुनाहों को छिपाना मुमकिन नहीं है मगर फिर भी हर कोई गुनाह करके उसको छिपाने की एक कोशिश ज़रूर करता है मगर कामयाब नहीं होता.
@ नीरज जी, आपका आशीर्वाद और प्यार मुझे अच्छा लिखने की प्रेरणा देता है.
@ गौतम भैय्या, आप इतनी बड़ी बात कह रहे है, शायद ये टिप्पणी कहीं और की यहाँ लग गयी है. गुरु देव का आशीर्वाद ही है जो थोडा बहुत लिख पा रहा हूँ.
गलत राह पर उसका गिरना तो तय था,
भला साथ देतीं दुआयें कहाँ तक
वाह अंकित... बहुत अच्छी गज़ल कही तुमने...! कुछ शेर बहुत ही उम्दा बन पड़े हैं
ना मकसद कोई जिंदगी का तेरे बिन,
ये साँसों से रिश्ता निभायें कहाँ तक।
यह शेर भी खूब है...!
हुन्म्म्म तो ये बात है , ग़ज़ल तो उसी दिन पढ़ चुका था मगर सोच में ये था के आखिर कहूँ क्या ... कमाल है धमाल है भाई ये ग़ज़ल तो , सच में गुरु देव को भी फकरा हुआ होगा इस ग़ज़ल को पढ़ कर ... सीहोर की साहित्य सरिता का खूब रसास्वादन किया है ... सच कहूँ तो हमें भी फक्र होता है जब गुरुकुल से कोई ऐसी गज़लें कहता है... वाह मजा आगया ... रश्क की बात तो
लाज़मी है लाडले... दुआएं भी की खूब लिखो ....
हमें खौफ गलती का बांधे हुए है
मगर सच से नज़रें चुरायें कहाँ तक ....
इस शे'र के आगे ढेर हुआ पडा हूँ ... हलाकि इसके आलावा भी अछे शे'र बुने हैं तुमने मगर इस शे'र के क्या कहने .....
कुछ टिप्पणियों पर टिपण्णी करना चाहता था .. :)
मगर अब नहीं ...
अर्श
mire man musafir ko ........
aha kya sher hai .....
magar sach se nazren....... bahut khoob
galat raah ............ to kamaal hai
bahut hi khoob gazal hui hai
Pahli baar aayi hun aapke blogpe..behad achha likhte hain aap..
"गलत राह पर उसका गिरना तो तय था,
भला साथ देतीं दुआयें कहाँ तक"
wah kya lines kahi hain...
Aaj dobara itminanse padha aapka lekhan..bahut anand mila!
ग़ज़ल के आसमान पर चमकता सितारा है अंकित। आपकी ग़ज़लों को पढ़ने और फिर नीरज जी द्वारा आपकी पीठ थपथपाने के बाद से बेहद प्रभावित हूँ आपसे।
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