15 October 2008

ग़ज़ल - रात भर ख़त तिरा इक खुला रह गया

दो दिन से बुखार के कारण बिस्तर पर पड़ा हुआ था, और उसी का परिणाम है कुछ ग़ज़लें। उनमे से जो ग़ज़ल सबसे पहली बनी थी उसे यहाँ पे पेश कर रहा हूँ, गुरु जी( पंकज सुबीर जी) की भी बात दिमाग में थी.....

"प्रिय अंकित तुम्‍हारी ग़ज़लें देख रहा हूं और ये पा रहा हूं कि तुम कठिन काफिया और रदीफ के चक्‍कर में उलझे हो और उसी के कारण भर्ती के काफिये और रदीफ लेने पड़ रहे हैं । मैनं पिछली कक्षाओं में बताया है कि ज़रूरी नहीं है कि कठिन काफिया और रदीफ ही लिया जाये । सरल काफियों पर भी बेहतरीन ग़ज़लें लिखी गईं हैं । ग़ालिब की मशहूर ग़ज़लें बहुत सरल काफियों पर हैं । तुम्‍हारी पिछली दोनों ग़ज़लें कठिन काफियों और कठिन रदीफों का शिकार हैं । इससे बाहर निकलो और आम बोलचाल की भाषा में लिखो जैसे ग़ालिब कहते हैं कि हरेक बात पे कहते हो तुम के तू क्‍या है तुम्‍हीं कहो के ये अंदाज़े ग़ुफ्तगू क्‍या है । सरल लिखो पर गहरा लिखो । कठिन लिखोगे तो उथला हो जायेगा ।"

बहरे मुतदारिक मुसमन सालिम
२१२-२१२-२१२-२१२ 

रात भर ख़त तिरा इक खुला रह गया।
मेरे कमरे में जलता दिया रह गया।
.
भूख दौलत की बढती रही दिनबदिन,
आदमी पीछे ही भागता रह गया।
.
छीन के ले लिया मुझसे दुनिया ने सब,
इक तिरी याद का आसरा रह गया।

9 comments:

Richa Joshi said...

शानदार शेर-
भूख दौलत की बढती रही दिनबदिन,
आदमी पीछे ही भागता रह गया।
बधाई

lata said...

bahut badhiya.

Mumukshh Ki Rachanain said...

ankit jee,

aapkee gazal ke sabhee sher ek se badh kar ej hai,
main bhee isme aapke junun ko jod kar pesh kar raha hoon

bhookh pese-gazal badhatee rahee din-b-din
ham likhte hee rahe, likhate hee rahe.

chandra mohan gupta

पंकज सुबीर said...

प्रिय अनुज अंकित
तुमने देखा कि कैसे आसान काफिये पर क्‍या होता है । अच्‍छी ग़ज़ल है तुम्‍हारी लाओ पीठ लाओ ठोंक दूं । ये जो तुमने वर्ड वेरीफिकेशन लगाया है उसे हटा दो ।

Ankit said...

गुरु जी, पीठ हाजिर है मेरी मगर जब गलती करू तो मारियेगा भी.
मैंने वर्ड वेरिफिकेशन हटा लिया है.

अमिताभ मीत said...

बहुत खूब भाई. सुंदर ग़ज़ल.

"रात भर ख़त तिरा इक खुला रह गया
मेरे कमरे में जलता दिया रह गया"

क्या बात है.

पंकज सुबीर said...

अंकित तुमने ग़जल की बहर का नाम ग़लत लगाया है ये दरअस्‍ल में मुतदारिक मुसमन सालिम है । मुतदारिक जिसका कि वज्‍न होता है फाएलुन 212 मुसमन क्‍योंकि 4 रुक्‍न हैं और सालिम क्‍योंकि चारों ही 212 हैं ।
पुन: तुम्‍हारी तबीयत अब कैसी है ।

योगेन्द्र मौदगिल said...

वाह वाह
पहले से बहुत बेहतर है भाई
बधाई एवं शुभकामनाएं बुखार को दूं या तुम्हें
विश्वास है अब सेहत भी बेहतर होगी
अपना ध्यान रखिये
और खूब लिखिये
पुन बधाई

Ankit said...

गुरु जी एवं योगेन्द्र जी,
अब मैं बिल्कुल स्वस्थ हूँ, मगर इस बुखार ने कुछ ग़ज़ले और एक नज़्म दी है.
इसलिए आप बधाई किसी को भी दे सकते है.