08 November 2008

समीक्षा - "दुआ कीजे" [मुस्तफा "माहिर" पन्तनगरी]

मेरे अज़ीज़ दोस्त और साथी शायर मुस्तफा "माहिर" की पहली किताब "दुआ कीजे" "अमृत प्रकाशन" शाहदरा, दिल्ली-११००३२ से प्रकाशित हो गई है। मेरी तरफ़ से उन्हें दिली मुबारक़बाद। 

एक छोटा सा परिचय :-
"माहिर" का जन्म २ नवम्बर १९८४ को पंतनगर, उत्तराखंड में हुआ। बरेली कॉलेज से सन २००५ में बी.एस.सी. के बाद उन्होंने के.सी.एम.टी. बरेली से सन २००८ में एम.बी.ऐ. की डिग्री हासिल की। 

उनकी किताब "दुआ कीजे" ग़ज़ल संग्रह है. किताब की शुरुआत ही एक बेहतरीन शेर से हुई है।
"इक मिसरा है प्यार तुम्हारा
दूजा मिसरा ग़ज़लें हमारी"


"दुआ कीजे" के कुछ ग़ज़ल और शेर मैं उनकी अनुमति से यहाँ लिख रहा हूँ। 


1)-
कितनी ही नदियों से हाथ मिलाया है।
तब जाके सागर, सागर बन पाया है।

तेरे रहबर लोग हुए लेकिन मुझको,
राह की ठोकर ने चलना सिखलाया है।

उसकी बातों से लेकर आंखों तक पे,
लोगों ने अक्सर ही मुझको पाया है।

२)-
खुशी की एक है लेकिन किरण में ज़िन्दगी तो है।
ज़रा सी देर ही को है अमन में ज़िन्दगी तो है।

हमें इसका नही शिकवा वो आता है घड़ी भर को,
मिलन कितना भी छोटा है मिलन में ज़िन्दगी तो है।

ठहर जाने का मतलब है मिटा लेना खुदी अपनी,
चले निकलों, चले निकलों, थकन में ज़िन्दगी तो है।

तवायफ दर्द की, पायल बजके शोर करती है,
मगर उसकी इसी छन छनन में ज़िन्दगी तो है।

खिले थे गुल सभी लेकिन सभी मायूस कितने थे,
किसी तितली के आने से चमन में ज़िन्दगी तो है।

कुछ शेर "दुआ कीजे" से ......

१)-
इससे अच्छी बात भला क्या हो ग़म में,
जो अपने लगते थे वो अपने निकले।
२)-
उन लम्हों में ऐसा कुछ भी ख़ास नही,
साथ तुम्हारे बीते थे तो याद रहे।
३)-
नज़र वो है जो लम्हें भर में कर ले जुस्तजू पूरी,
सुबह तक तो अन्धेरें भी उजाले ढूँढ लेते हैं।
४)-
इस सियासत की जुबा में लफ़्ज़ के कहने का गर,
ढंग भी बदला तो मतलब दूसरा हो जाएगा।

मैं यही दुआ करता हूँ की ये किताब एक मिसाल बने.

3 comments:

आलोक साहिल said...

very gud bhai ji, i m a lover of gajals,lov to read this book.thanx
ALOK SINGH "SAHIL"

"अर्श" said...

aapke mizaz ko allah samajhe aur aapke dost ki dua-kije kitab ko khub hausalafjai mile ....aamin..

गौतम राजऋषि said...

किताब के लिये ढ़ेरों शुभकामनायें
और मेरी गज़ल पसंद आयी आपको,मेहरबानी है.
गुरूजे इसलिये खुश नहीं हैं कि कई कमियाँ हैं गज़ल में,मसलन मतले के दुसरे मिस्रे का काफ़िया "देहलीज" इसका वजन २२२ है जबकी बहर के हिसाब से यहां वजन २१२१ होना चाहिये.मैं अगर "देहलीज" को खिंच कर पढू दे-ह-ली-ज तब जाकर ये बहर पर बैठेगा..
दूसरा एक काफ़िया है "तबीज" जबकि असल शब्द "ताबीज" होता है
फ़िर गुरू जी को चौथा शेर बिल्कुल नहीं भाया है.इसमें विरोधाभास है.आप पढ़ें..