25 November 2008

ग़ज़ल - ये खंडहर हैं किसी की यादें.........

वो सज संवर के निकल रहे हैं।
हवा फिज़ा सब बदल रहे है।

तिरी नज़र, होठ, ज़ुल्फ़, चिलमन,
मिरी ही कोई ग़ज़ल रहे हैं।

कसम वो तुमको न सोचने की,
किए जो वादे पिघल रहे हैं।

है प्यार यारों नया ही हरदम,
कदम संभल कर फिसल रहे हैं।

ये खंडहर हैं किसी की यादें,
कभी ये जगमग महल रहे हैं।

6 comments:

mehek said...

है प्यार यारों नया ही हरदम,
कदम संभल कर फिसल रहे हैं।

ये खंडहर हैं किसी की यादें,
कभी ये जगमग महल रहे हैं।
waah behtarin bahut badhai

नीरज गोस्वामी said...

तिरी नज़र, होठ, ज़ुल्फ़, चिलमन,
मिरी ही कोई ग़ज़ल रहे हैं।
कसम वो तुमको न सोचने की,
किए जो वादे पिघल रहे हैं।
एक और बेहतरीन ग़ज़ल आप की कलम से...वाह...बहुत उम्दा लिख रहें है आप...क्या बात है...
नीरज

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया!!!

ये खंडहर हैं किसी की यादें,
कभी ये जगमग महल रहे हैं।

"अर्श" said...

umda sher se bana behtarin ghazal.. bahot khub bhai dhero badhai aapko...

गौतम राजऋषि said...

क्या बात है अंकित...बहुत सुंदर भई...बहुत सुंदर

एकदम दिल से कह रहा हूँ.एकदम कसी बहर.गुलजार साहब की इसी बहर पे "वो खत के पुर्जे उड़ा रहा था.." मेरी फ़ेवरिट है..
कसम वो तुमको न सोचने की,
किए जो वादे पिघल रहे हैं..
बहुत खूब...मुबारकें इतनी सुंदर गज़ल को उतने ही सुंदर बहर पे कसने के लिये

Ankit said...

महक जी, परमजीत बाली जी, अर्श साहेब आप की दाद के लिए शुक्रिया,
नीरज जी मैं अगर उम्दा लिख पा रहा हूँ तो बस आप लोगों के आशीर्वाद से. गुरु जी, आप, योगेन्द्र जी, गौतम जी इतना सुन्दरता से अपनी बात कहते हैं मैं उसी को सीखने की कोशिश कर रहा हूँ.
गौतम जी इतनी तारीफ के लिए शुक्रिया मैं कोशिश करूँगा की हमेशा बहर में लिखू और आपकी उम्मीदों पे खरा उतरू.