24 November 2008

ग़ज़ल - रात लपेट के सोया हूँ मैं

आँखे जब भी बोलें जादू
बातें शोख, अदा इक खुशबू

तेरी आँखों का ये जादू 
काबू में है दिल बेकाबू 

रात लपेट के सोया हूँ मैं 
चाँद को रख कर अपने बाज़ू 

एक ख़याल तुम्हारा पागल 
लफ़्ज़ों से खेले हू-तू-तू 

जब लम्हों की जेब टटोली 
तुम ही निकले बन कर आँसू 

याद तुम्हारी फूल हो जैसे 
सारा आलम ख़ुश्बू-ख़ुश्बू

बीच हमारे अब भी वो ही 
तू-तू-मैं-मैं, मैं-मैं-तू-तू 

दुनिया को क्यूँ कोसे ज़ालिम 
जैसी दुनिया वैसा है तू

नींद के पार उभर आया है 
ख़्वाब सरीखा कोई टापू 


[हिंदी चेतना जनवरी-मार्च 2013 अंक में प्रकाशित]


6 comments:

Jimmy said...

bouth he aacha post hai


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"अर्श" said...

दुनिया को क्यों कोसे जालिम ,
जैसी दुनिया वैसा ही तू .

बहोत खूब लिखा है आपने ,ढेरो बधाई आपको...

गौतम राजऋषि said...

बेहतरीन गज़ल है अंकित भाई...हार्दिक बधाई
एकदम चुस्त बहर {मुतदारिक मुसमन मकतुअ}
बस मतले में "एक" को "इक" कर लो...
मकते तो बस कयामत वाला है

फिर से वाह वाह...

नीरज गोस्वामी said...

दुनिया को क्यूँ कोसे जालिम....भाई वाह...बेहतरीन रचना है आप की ...बहुत बहुत बधाई.
नीरज

Ankit said...

शुक्रिया जिमी भाई, "अर्श" साहेब आपका स्नेह मिला बहुत अच्छा लगा.
गौतम जी मैंने आपके कहे अनुसार एक को इक कर दिया है दरसल ये मैंने इक ही लिखा था मगर यहाँ पे ये एक हो गया.
नीरज जी आपकी दाद मिली मेरी खुशनसीबी, मैंने कोशिश करूँगा की अच्छे से अच्छा लिखू और बहर में लिखूं.

Alpana Verma said...

वाह!बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल !