कभी झूठा समझता है, कभी सच्चा समझता है।
ये उसके मन पे है छोडा वो जो अच्छा समझता है।
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बिताये संग थे लम्हें तिरी वो याद पागल सी ,
बिताये संग थे लम्हें तिरी वो याद पागल सी ,
ज़हन में आ ही जाते है जो दिल तनहा समझता है।
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मुहब्बत और चाहत को न जाने कब तू समझेगा,
मुहब्बत और चाहत को न जाने कब तू समझेगा,
जो तेरी याद में जलता हुआ लम्हा समझता है।
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चले आते है फ़िर क्यों सब उसी कानून पे जिसको,
चले आते है फ़िर क्यों सब उसी कानून पे जिसको,
कोई अँधा समझता है, कोई गूंगा समझता है।
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वो रखता है मुझे दिल में, छिपाता है सभी से ही,
वो रखता है मुझे दिल में, छिपाता है सभी से ही,
ये मेरी खुशनसीबी के मुझे अपना समझता है।
6 comments:
वाह!! अंकित जी. बहुत खूब!!
"चले आते हैं फ़िर क्यूँ..."
बेहतरीन शेर...बहुत अच्छा लगता है जब आप से नौजवान इतने संजीदा और खूबसूरत शेर कहते हैं...ग़ज़ल की ये विधा जरूर बुलंदी पर पहुँचेगी...इस में शक नहीं...लिखते रहें...
नीरज
वाह साहब ! क्या बात है. लाजावाब ....
बहुत खूब अंकित जी...लाजवाब बंदिश...एकदम नपा-तुला और मीटर पर कसा हुआ.
एक अच्छी गज़ल पे बधाईयां
``चले आते हैं फिर क्यों सब उसी कानून पे जिसको
कोई अंधा समझता है कोई गूंगा समझता है''
ये शे`र सबसे बढिया लगा।``
khoobsurat....
अंकित
भाई बेहतर ग़ज़ल कही है आपने
बधाई
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