04 November 2008

ग़ज़ल - कभी झूठा समझता है, कभी सच्चा समझता है


कभी झूठा समझता है, कभी सच्चा समझता है।
ये उसके मन पे है छोडा वो जो अच्छा समझता है।
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बिताये संग थे लम्हें तिरी वो याद पागल सी ,
ज़हन में आ ही जाते है जो दिल तनहा समझता है।
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मुहब्बत और चाहत को न जाने कब तू समझेगा,
जो तेरी याद में जलता हुआ लम्हा समझता है।
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चले आते है फ़िर क्यों सब उसी कानून पे जिसको,
कोई अँधा समझता है, कोई गूंगा समझता है।
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वो रखता है मुझे दिल में, छिपाता है सभी से ही,
ये मेरी खुशनसीबी के मुझे अपना समझता है।

6 comments:

Udan Tashtari said...

वाह!! अंकित जी. बहुत खूब!!

नीरज गोस्वामी said...

"चले आते हैं फ़िर क्यूँ..."
बेहतरीन शेर...बहुत अच्छा लगता है जब आप से नौजवान इतने संजीदा और खूबसूरत शेर कहते हैं...ग़ज़ल की ये विधा जरूर बुलंदी पर पहुँचेगी...इस में शक नहीं...लिखते रहें...
नीरज

अमिताभ मीत said...

वाह साहब ! क्या बात है. लाजावाब ....

गौतम राजऋषि said...

बहुत खूब अंकित जी...लाजवाब बंदिश...एकदम नपा-तुला और मीटर पर कसा हुआ.
एक अच्छी गज़ल पे बधाईयां

हरकीरत ' हीर' said...

``चले आते हैं फिर क्‍यों सब उसी कानून पे जिसको
कोई अंधा समझता है कोई गूंगा समझता है''
ये शे`र सबसे बढिया लगा।``

योगेन्द्र मौदगिल said...

khoobsurat....
अंकित
भाई बेहतर ग़ज़ल कही है आपने
बधाई