11 November 2008

ग़ज़ल - अब तीरगी को मात ये देकर ही बुझेगा

अब तीरगी को मात ये देकर ही बुझेगा।
लड़कर हवा से ये दिया जोरों से जलेगा।
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मेरी बुलंदी का धुआं यारों मत बनाओं,
किस को ख़बर है किस की ये आंखों में चुभेगा।
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तह पड़ चुकी है गर्द की रिश्तों पे यहाँ यूँ,
पोछा गया तब कुछ नया ताज़ा सा दिखेगा।
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चाहे बड़ा कितना भी हो जाऊँ, माँ के आगे,
दर पे झुका है सर मिरा झुकता ही रहेगा।
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अच्छा सलीका है सिखाने का यार उसको,
वो खुदबखुद ही सीख जाएगा जब गिरेगा।
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मैंने हुनर में रख तराशा है एक संग जो,
ऊँचे अगर, मैं दाम रख बेचूं तो बिकेगा।

7 comments:

mehek said...

चाहे बड़ा कितना भी हो जाऊँ, माँ के आगे,
दर पे झुका है सर मिरा झुकता ही रहेगा।
.
अच्छा सलीका है सिखाने का यार उसको,
वो खुदबखुद ही सीख जाएगा जब गिरेगा।
waah gazab ki baat kahi,bahut hi badhiya badhai

"अर्श" said...

aakhiri sher katilana ,sath me mukkamal....aapko dhero sadhuwad..

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा!! अच्छा लगा!

रंजना said...

तह पड़ चुकी है गर्द की रिश्तों पे यहाँ यूँ,
पोछा गया तब कुछ नया ताज़ा सा दिखेगा।
...bahut khoob.

bahut bahut sundar gazal hai.....

योगेन्द्र मौदगिल said...

अच्छी गज़ल कही है अंकित जी आपने

Ankit said...

आप सभी लोगों का शुक्रिया उत्साहवर्धन के लिए. मैं कोशिश करूँगा अच्छी से अच्छी ग़ज़ल लिखूं.
- अंकित "सफर"

गौतम राजऋषि said...

क्या बात है अंकित ...कहर बरपा दिया तुमने
बहुत सुंदर रचना
बहर में कहीं कहीं ढ़िलाव है...

मैंने हुनर में रख तराशा है एक संग जो...बहुत सुंदर बन पड़ा है